2/20/2011

जीवन की सबसे बड़ी भूल और सबसे बड़ा दुःख

मनुष्य जो है वह साधारण रूप सइ देह में बंधा हुआ है. यह अपने को देह ही समझता है और देह के जो संबंधी है उनको समझता है मेरा. इसका फल क्या निकला ? एक व्यवहार की बात देखो. जब हम साढ़े तीन हाथ के शरीर को मै समझते है तो इस शरीर के सुख से सुखी और इस शरीर के दुःख से दुखी होते है और इस शरीर के लिए जो सुखकारक पदार्थ है, उनसे राग करते हो  और इस शरीर के लए जो दुख्कारक  पदार्थ है, उनसे द्वेष करते है, हमने अपने को एक सीमा में  बाध दिया. अब बोले भाई,  इतना मै हूँ और मेरे सिवाय और सब दूसरा द्वेष करते है हमने अपने को एक सीमा में बाढ़ दिया. अब बोले भाई, इतना मै हूँ और मेरे सिवाय और सब दूसरा है, जब हमने अपने को शरीर समझा, तब दुसरे भी हमको शरीर समझते है और संसार के सुख-दुःख इसी बात पर आते है.

एक बार मै रेलगाड़ी से यात्रा कर रहा था. बरसी से हरिद्वार जा रहा था. रात्रि  का समय था. एक पेशावरी उस डिब्बे में  सो रहा था. मैंने सोचा की यह पाँव फैलाकर सो रहा है तो मै इसके पाँव के पास बैठ जाऊ तो कोई कोई हर्ज नहीं है और  मै बैठ आया. अब बैठ गया तो वह बड़ा नाराज हुआ. नाराज होकर गाली भी देने लगा और पाँव  से मारने भी लगा. मै चुपचाप बैठा रहा. दुःख तो होता था. पर मै जब बहुत देर तक नहीं बोला तो वह कहने लगा की यह तो कोई गांधी का चेला मालूम पड़ता है. मै स्टेशन आने पर उतर गया. मन में दुःख तो बड़ा था.

एक महात्मा से मिलने गया और उनसे मैंने कहा की महाराज आप लोग तो समझाते हो की देह नहीं हो और इधर देह का कोई तिरस्कार करता है कोई गाली देता है तो बड़ा दुःख होता है. यह क्या बात है? उन्होंने कहा की भैया जिस समय तिरस्कार होता है, उस समय तुम ऐसी जगह पर बैठे रहते हो, जहा बैठने पर तिरस्कार होना ही चाहिए. जब-जब तुन्मे अपमान का अनुभा होता है, तब-तब तुम्हारी बैठक ऐसी जगह पर रहती है, जहा तुम अपमान के पात्र रहे हो.

अखान्दानद सरस्वती जी महाराज के आनंद रस रत्नाकर से साभार


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