12/18/2010

ध्रतराष्ट्र का माम बड़ा सार्थक था

द्वितीय स्कंध के अंतिम दसवे अध्याय में शुकदेवजी महाराज परीक्षित  को यह बताते है की इस भागवत महापुराण में दस वस्तुओ  द्वारा परमात्मा के स्वरुप का वर्णन किया गया है. वे दस वस्तुए क्या है ?
यह स्रष्टि कैसे हुई ?
स्रष्टि में विविध योनिया कैसे बनी ?
एक ही तत्व. एक ही पंचभूत है फिर उसमे मानुष, पशु, पक्षी और कीड़े-मकोड़े आदि कैसे बन जाते है ?
विविधता कहा से आ जाती है ?
स्रष्टि किस स्थान में टिकी है ?
स्रष्टि के सूखने पर इसको सीचनेवाला कौन है ?
वासनाए कैसे-कैसे होती है ?
काल का विभाग  कैसे होता है ?
भक्तो के चरित्र  कैसे होते है ?
भगवान् के प्रेम में मनका निरोध कैसे होता है ?
मुक्ति क्या है ?
सबसे अधिष्ठान परमात्मा का स्वरुप क्या है ?

इन दस वस्तुओ के निरूपण द्वारा सारे श्रीमद्भागवत में एक ही तत्व, एक ही परमात्मा का वर्णन है.

पहले स्कंध में बताया गया है की भागवत के अधिकारी वक्ता-श्रोता सूत-शौनक, नारद-व्यास और शुकदेव-परीक्षित कैसे है तथा दूसरे स्कंध में यह प्रतिपादित किया गया है की भगवत्प्राप्ति के लिए श्रवण ही मुख्य साधन है और उसके इतने अंग है.

भागवत के तीसरे स्कंध में तैतीस अध्याय है. इनमे विसर्ग के द्वारा परमात्मा का वर्णन है विसर्ग का अर्थ है स्रष्टि की विविधता. ब्रह्म के प्रकाश में गुणों  की विषमता से जो विविध प्रकार की स्रष्टि होती है, उसको विसर्ग कहते है.
परन्तु यहाँ विसर्ग शब्द का अर्थ बहुत विलक्षण है आपने गीता में पढ़ा है  की इस संसार में दो प्रकार के भूतसर्ग होते है-एक देव सर्ग और दूसरा आसुर सर्ग-
इसलिए तीसरे स्कंध के पूर्वार्द्ध के उन्नीस अध्यायों में आसुर विसर्ग का और उत्तरार्द्ध के  चौदह अध्यायों में देव विसर्ग का वर्णन है. आसुर विसर्ग में हिरण्याक्ष, हिरान्य्कशिपू की कथा है और देव विसर्ग में मनु-शतरूपा, कर्दम-देवहूति तथा कपिल-अदिति की वंश परंपरा का वर्णन है.

बात उस समय की है जब कौरव-पांडवो की ओर से महाभारत युद्ध की तैयारी हो रही थी. विदुर जी ध्रतराष्ट्र  के पास बुलाये गए. क्यों बुलाये गए ? इसलिए बुलाये गए की ध्रतराष्ट्र को चिन्ता के मारे नीद नहीं आ रही थी. उनको चिंता सता रही थी की अब कौरव पांडवो में युद्ध होगा और वंश का नाश हो जाएगा ऐसी श्तिति में  हमें क्या करना चाहिए ?
ध्रतराष्ट्र का माम बड़ा सार्थक था. उन्होंने दुनिया को बड़े जोर से पकड़ रखा था. उनको परमात्मा तो सूझता ही नहीं था, केवल दुनिया सूझती थी. वे परमात्मा के न सूझने के कारण अंधे थे और दुनिया को पकड़ रखने के कारण ध्रतराष्ट्र थे.
विदुरजी साक्षात् ज्ञान की मूर्ती और धर्मराज के अवतार थे. आप लोगो ने सुना होगा की जब भगवान श्रीकृष्ण पांडवो के दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे तब दुर्योधन ने उनके लिए अपने महल सजा दिए, उनको भेट में देने के लिए बहुमूल्य हीरे मोतियों का ढेर लगा दिया और उनसे प्रार्थना की की आप हमारे यहाँ विश्राम कीजिये और भोजनपर पधारिये.
परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने यह उत्तर दिया की दुर्योधन मुझे कोई प्रेम से खिलाता है तो मै उसके घर अवश्यखाता  हूँ. यदि भूखा होऊ तो कही मांगकर भी खा  लेता हूँ  लेकिन तुम न तो मुझे प्रेम से खिलाना चाहते हो और न मै भूखा हूँ  इसलिए मै तुम्हारे घर में न तो ठहरूगा और न ही भोजन करूगा.
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण बिना बुलाये ही विदुर के घर चले गए. भागवत के इसी तीसरे स्कंध के प्रारंभ में श्रीशुकदेवजी महाराज ने परीक्षित  से कहा की भगवान् विदुर के घर को अपना ही घर समझते थे इसलिए वे दुर्योधन के निमंत्रण को ठुकराकर अपने  आप वहा चले गए.
वही विदुरजी जब बुलाये जाने पर ध्रतराष्ट्र के पास गए तब उन्होंने उनको न्याय की, सत्य की, निष्पक्षता की बात समझाई और कहा की तुम्हे  अपने तथा पांडू के पुत्रो के साथ विषमता का व्यवहार नहीं करना चाहिए. तुम्हारे घर में दुर्योधन रूपी कलियुग का अवतार हुआ है और यह वंश का नाश करने के लिए आया है.
यह बात जब दुर्योधन को मालूम हुई तब वह विदुरजी पर बहुत नाराज  हुआ इस पर विदुरजी ने अपना धनुष बाण वही ध्रतराष्ट्र के दरवाजे पर रख दिया, जिससे की कोई यह न समझे की मै पांडव पक्ष में मिलकर कौरवो के साथ युद्ध करूगा और फिर वे घर नगर छोड़कर तीर्थाटन के लिए निकल पड़े. विभिन्न तीर्थो का भ्रमण करते हुए जब वे यमुना  तट पर पहुचे तब वहा उनकी भेट उद्धव जी से हो गयी उनसे विदुरजी ने द्वारका का कुशल मंगल पूछा.
तबतक भगवान् श्रीकृष्ण अंतर्धान हो चुके थे. सिर्फ उद्धवजी ही बचे थे. उद्धवजी विदुरजी द्वारा कुशल मंगल पूछने पर श्रीकृष्ण के स्मरण में मग्न हो गए, उनकी आखो से आँसू गिरने लगे और उनके शरीर में रोमांच हो गया.