9/10/2011

धन से हानि


धन की सार्थकता उसे भगवान् की सेवा में लगाने में है. लक्ष्मी  भगवान् की सेविका है, उन्हें निरंतर भगवान् की सेवा में ही नियुक्त करते रहना चाहिए. इससे लक्ष्मी की प्रसन्नता पाप्त होती है और उनका विस्तार होता है. लक्ष्मीपति नारायण तो प्रसन्न होते ही है. संसार में जिसके पास जो कुछ भी है, सब भगवान् का है, हमने जो उस पर पाना अधिकार मान लिया है, यह तो हमारी बेईमानी है,

       हम सेवक है, हमारा काम है मालिक की संपत्ति की रक्षा करना और उनके आज्ञानुसार , उनकी माग के  अनुसार उनके सेवा में उसे समर्पित करते रहना. सारे जीव भगवान् के स्वरूप है - उनमे जहा जिस वस्तु  का अभाव है, वही भगवान् उस वस्तु को चाह रहे है. जिसके पास वह वस्तु है, उसे चाहिए की भगवान् की इस माग को ठुकराए नहीं और बड़े आदर के साथ उस  पर अपना कोई अधिकार न समझकर उसे यथायोग्य अभावग्रस्त प्राणियों को  अर्पण कर दे.

       अभावग्रस्त प्राणियों को दया का पात्र न समझे और न अपने को दाता समझकर मन में अभिमान  या उनपर अहसान करे. उन्हें भगवान् का स्वरूप समझे और भगवान् के नाते उस वस्तु पर उनका सहज अधिकार समझे यह समझे की मैंने भगवान् की वास्तु भगवान् को ही दी है.

       जो वस्तु का स्वामी है, उसी को वह वस्तु दी जाय इसमें हमारे लिए अभिमान की कोण सी बात है ? इस प्रकार निरभिमान होकर धन के द्वारा भगवान् की  सेवा करता रहे, इसी में धन की सार्थकता है और ऐसा करने से ही धन का उत्तम परिणाम होता है, नहीं तो धन केवल कष्टदायक होता है और नाना प्रकार के पाप उत्पन्न करके  नरको और दुखपूर्ण योनियों में पंहुचा देता है.

       प्रायः देखा जाता है के केवल  ईकट्ठा करने वाले क्रपड़ो को  धन से कभी सुख नहीं मिलता. यहाँ तो वे रात-दिन धन कमाने और उसकी रक्षा  करने की चिंता से जलते रहते है और मरने पर धन का सदुपयोग न करके उसे पापकर्म का कारणरूप बनाने के कारण घोर नरको में गिरते है.

      जैसे थोडा सा कोढ़ सर्वांगसुंदर शरीर के सौन्दर्य को बिगाड़ देता है वैसे ही धन का तनिक सा लोभ यशास्वियो के निर्मल यश में और गुडवानो के सद्गुदो  में कलंक लगा देता है. धन कमाने में, कमाकर उसे बढाने में, रक्षा करने में, खर्च करने में, भोगने में और नाश हो जाने दिन-रात परिश्रम, भय, चिंता और भ्रम डूबे रहना पड़ता है.

        चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दंभ, काम, क्रोध, गर्व, मद-अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अत्यंत जुआ और शराब - ये पंद्रह अनर्थ मनुष्यों में  धन से ही पैसा होते है. इसलिए अपना कल्याण चाहने वाले पुरुषो को ऐसे अनर्थ करनेवाले अर्थ को दूर से ही प्रणाम कर लेना चाहिए.

        स्नेह बंधन में बढ़कर सदा एक रहनेवाले सगे भाई बंधू, स्त्री-पुत्र, माता-पिता और सगे संबंधियों आदि में भी धन की कौड़ियो के कारण इतनी फूट पड़ जाती है की  वे एक दुसरे के वैरी बन जाते है. थोड़े से धन के लिए वे क्षुब्ध हो जाते है, उनके क्रोध की आग भड़क उठती है. वे आपस में लड़ने लगते है और पुराने प्रेम बंधन को तोड़कर सहसा एक दुसरे का गला काटने को तैयार हो जाते है.

        इसपर टीका-टिप्पड़ी व्यर्थ है. धनासक्ति, धन-कामना, धनप्राप्ति और धनसंग्रह का यह
परिणाम जगत में आज प्रत्यक्ष  हो रहा है. यह सत्य है-धन आवश्यक है, धन की सार्थकता भी है और धन कमाना भी चाहिए परन्तु  कमाना चाहिए उसे भगवान् की सेवा के लिए, भगवान् के नियमो  की रक्षा करते हुए, भगवान् के अनुकूल उपायों से ही और धन के प्राप्त होने पर उसका भगवान् के आज्ञानुसार सदुपयोग करना चाहिए. अपने धन पर जो गरीबो का अधिकार समझता है  और उनके हितार्थ उसका यथायोग्य उपयोग करता है, वही सच्चा धनी है.

        धन का वही उपयोग उत्तम है जो परिणाम में शांति, प्रसन्नता और सुख उत्पन्न करनेवाला हो, जो किसी को कुछ देकर पछताता है, वह या तो धन का दुरूपयोग करता है, अथवा धनासक्ति में फंसा हुआ प्राणी है जो  धन के नाम पर कमाता रहता है.