1/07/2011

यग्य की गति

व्यक्तियों में कर्तापन है की मैंने यह किया, मैंने वह किया इसके मूल में अज्ञान है. यही अहंता मनुष्य की परिचिछ्न्न बनती है. जितनी चोट संसार में पड़ती है. वह सब करता और भोक्तापर ही पड़ती है. यदि अपने भीतर कर्तापन का अभिमान न हो तो चोट न पड़े. असल में महाकर्ता, महाभोक्ता, महात्यागी जो परमेश्वर है, उसके कर्मपर उसके भोगपर उसके त्यागपर द्रष्टि रहे तो मनुष्य कभी अपने अभिमान के वश में न हो.

कर्तत्व की शिथिलता  होती है भगवान् की शरणागति  से जब तक अपना कर्तापन है, तबतक जीवन में ईश्वर का आविर्भाव नहीं होता.

देखो, यहाँ अधिकारी का भेद है. यदि एक निकम्मा अधिकारी है तो उसके लिए कहा गया है की काम करो. जब वह काम करने लगा तब कहा गया  की निषिद्ध कर्म मत करो, विहित कर्म करो. जब वह सकाम विहित कर्म करने लगा तब कहा गया निष्काम कर्म करो. जब वह निष्काम कर्म करने लगा तो इस उपदेश का अधिकारी हुआ की तुम कर्तापन का अभिमान मत करो. कर्तत्वाभिमानी के कर्तापन को तोड़ने के लिए ही शरणागति का उपदेश किया जाता है.

 असल में सब काम भगवान् की सत्ता महत्ता से ही हो रहे है. यदि सकाम को भी, बुरा काम करने वाले को भी कहे की भगवान् करा रहे है तो यह जो अध्यारोप हुआ वह बिलकुल गलत स्थान पर हो गया. वस्तुतः भगवान् किसी को निकम्मा नहीं रखते. निकम्मा तो मुर्दा रहता है. निषिद्ध कर्म भगवान् नहीं कराते, अपनी वासना कराती है. सकाम कर्म भगवान् नहीं कराते. अपना स्वार्थ कराता है. इसी तरह हमारे अन्दर जो कर्तापने का अभिमान है, वह भगवान् नहीं देते, हमारी मूर्खता देती है. इसलिए जो जिसका अधिकारी होता है , उसके लिए उसी प्रकार का उपदेश शास्त्र में आया है. यदि व्यभिचारी से कह दिया की इश्वर तुमसे व्यभिचार करा रहे है तो ये सब बाते अविवेकमूलक  है, मूर्खाताजन्य  है, मनुष्य को ईश्वर से प्रथक करने वाली है.

आप अनुभव करे, ईश्वर की कृपा से मेरे द्वारा अच्छा काम हो गया लेकिन हमसे जो बुरा काम हुआ वह हमारी भूल से हुआ. इसी द्रष्टि से तुलसीदास जी ने कहा -
 गुण तुम्हार समुझहि निज दोसा. जेहि सब भाति  तुम्हार भरोसा.

इसलिए कोई अच्छा काम हो तो अभिमान मत करो और समझो की वह इश्वर की प्रेरणा से हुआ है और बुरा काम हो तो मान लो अपनी त्रुटी से अपनी गलती से हुआ है.

अब यदि कहो हम करता नहीं रहे, ईश्वर करता रहा तो यह  ठीक है. भक्त के मन में ऐसा ही आता है. शरणागत कहता है की भगवान् मैंने  तो कुछ नहीं किया, तुमने किया, इसलिए तुम जानो. इस तरह कर्तत्व को उठाकर पूर्णतः परमेश्वर के ऊपर डाल देना, देखना और शरागत हो जाना. यह अभिमान को तोड़ने की युक्ति है. यदि बीच में ही कही पकड़कर बैठ जायेगे और कहेगे की भाई, अच्छा बुरा तो सबसे होता है, कामना तो सबके ह्रदय में ही रहती है, कर्ताप तो सबमे ही रहता है गलत काम तो सबसे ही होते है, तब क्या होगा की उन्नति की जो प्रक्रिया अपने जीवन शुरू होनी थी, प्रगति जो रसायन बनाना था, उसका द्वार बंद हो जायेगा, इसलिए कर्मारंभ से लेकर परिपूर्ण ब्रह्मपर्यंत यग्य की ही गति है.

स्वामी श्री अखंडानंद सरस्वतीजी महाराज के आनद रास रत्नाकर से साभार