10/07/2011

बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग


बजरंग बाण


भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग 


अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जप करते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथा शान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ न हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थित हनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।
हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वाले दिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लें अथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकार के धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहना चाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।

जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भी करते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भ करें। “श्रीराम–” से लेकर “–सिद्ध करैं हनुमान” तक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है।
गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत का प्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट आ ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हें कम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।

बजरंग बाण ध्यान

श्रीराम
अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।


दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।


चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।

दोहा प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

मानस के मन्त्र


मानस के मन्त्र

१॰ प्रभु की कृपा पाने का मन्त्र
“मूक होई वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर गहन।
जासु कृपा सो दयाल, द्रवहु सकल कलिमल-दहन।।”



विधि-प्रभु राम की पूजा करके गुरूवार के दिन से कमलगट्टे की माला पर २१ दिन तक प्रातः और सांय नित्य एक माला (१०८ बार) जप करें।
लाभ-प्रभु की कृपा प्राप्त होती है। दुर्भाग्य का अन्त हो जाता है।



२॰ रामजी की अनुकम्पा पाने का मन्त्र
“बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।”


विधि-रविवार के दिन से रुद्राक्ष की माला पर १००० बार प्रतिदिन ४० दिन तक जप करें।
लाभ- निष्काम भक्तों के लिये प्रभु श्रीराम की अनुकम्पा पाने का अमोघ मन्त्र है।



३॰ हनुमान जी की कृपा पाने का मन्त्र
“प्रनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
जासु ह्रदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।”


विधि- भगवान् हनुमानजी की सिन्दूर युक्त प्रतिमा की पूजा करके लाल चन्दन की माला से मंगलवार से प्रारम्भ करके २१ दिन तक नित्य १००० जप करें।
लाभ- हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। अला-बला, किये-कराये अभिचार का अन्त होता है।



४॰ वशीकरण के लिये मन्त्र
“जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहि।।”


विधि- सूर्यग्रहण के समय पूर्ण ‘पर्वकाल’ के दौरान इस मन्त्र को जपता रहे, तो मन्त्र सिद्ध हो जायेगा। इसके पश्चात् जब भी आवश्यकता हो इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर गोरोचन का तिलक लगा लें।
लाभ- इस प्रकार करने से वशीकरण होता है।



५॰ सफलता पाने का मन्त्र
“प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देव।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।”

विधि- प्रतिदिन इस मन्त्र के १००८ पाठ करने चाहियें। इस मन्त्र के प्रभाव से सभी कार्यों में अपुर्व सफलता मिलती है।


६॰ रामजी की पूजा अर्चना का मन्त्र
“अब नाथ करि करुना, बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म, बस तहँ रामपद अनुरागऊँ।।”


विधि- प्रतिदिन मात्र ७ बार पाठ करने मात्र से ही लाभ मिलता है।
लाभ- इस मन्त्र से जन्म-जन्मान्तर में श्रीराम की पूजा-अर्चना का अधिकार प्राप्त हो जाता है।



७॰ मन की शांति के लिये राम मन्त्र
“राम राम कहि राम कहि। राम राम कहि राम।।”


विधि- जिस आसन में सुगमता से बैठ सकते हैं, बैठ कर ध्यान प्रभु श्रीराम में केन्द्रित कर यथाशक्ति अधिक-से-अधिक जप करें। इस प्रयोग को २१ दिन तक करते रहें।
लाभ- मन को शांति मिलती है।



८॰ पापों के क्षय के लिये मन्त्र
“मोहि समान को पापनिवासू।।”


विधि- रुद्राक्ष की माला पर प्रतिदिन १००० बार ४० दिन तक जप करें तथा अपने नाते-रिश्तेदारों से कुछ सिक्के भिक्षा के रुप में प्राप्त करके गुरुवार के दिन विष्णुजी के मन्दिर में चढ़ा दें।
लाभ- मन्त्र प्रयोग से समस्त पापों का क्षय हो जाता है।



९॰ श्रीराम प्रसन्नता का मन्त्र
“अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।”


विधि- इस मन्त्र को यथाशक्ति अधिक-से-अधिक संख्या में ४० दिन तक जप करते रहें और प्रतिदिन प्रभु श्रीराम की प्रतिमा के सन्मुख भी सात बार जप अवश्य करें।
लाभ- जन्म-जन्मान्तर तक श्रीरामजी की पूजा का स्मरण रहता है और प्रभुश्रीराम प्रसन्न होते हैं।



१०॰ संकट नाशन मन्त्र
“दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”


विधि- लाल चन्दन की माला पर २१ दिन तक निरन्तर १०००० बार जप करें।
लाभ- विकट-से-विकट संकट भी प्रभु श्रीराम की कृपा से दूर हो जाते हैं।



११॰ विघ्ननाशक गणेश मन्त्र
“जो सुमिरत सिधि होइ, गननायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोई बुद्धिरासी सुभ गुन सदन।।”


विधि- गणेशजी को सिन्दूर का चोला चढ़ायें और प्रतिदिन लाल चन्दन की माला से प्रातःकाल १०८० (१० माला) इस मन्त्र का जाप ४० दिन तक करते रहें।
लाभ- सभी विघ्नों का अन्त होकर गणेशजी का अनुग्रह प्राप्त होता है।

मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग




मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग



१॰ ऐश्वर्य प्राप्ति
‘माता सीता की स्तुति’ का नित्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ करें।




“उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ५)”


अर्थः- उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों की करने वाली श्रीरामचन्द्र की प्रियतमा श्रीसीता को मैं नमस्कार करता हूँ।।



२॰ दुःख-नाश
‘भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।




“यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ ६)


अर्थः- सारा विश्व जिनकी माया के वश में है और ब्रह्मादि देवता एवं असुर भी जिनकी माया के वश-वर्ती हैं। यह सब सत्य जगत् जिनकी सत्ता से ही भासमान है, जैसे कि रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है। भव-सागर के तरने की इच्छा करनेवालों के लिये जिनके चरण निश्चय ही एक-मात्र प्लव-रुप हैं, जो सम्पूर्ण कारणों से परे हैं, उन समर्थ, दुःख हरने वाले, श्रीराम है नाम जिनका, मैं उनकी वन्दना करता हूँ।



३॰ सर्व-रक्षा
‘भगवान् शिव की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।




“यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके 
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट, 
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः 
सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰१)


अर्थः- जिनकी गोद में हिमाचल-सुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहार-कर्त्ता, सर्व-व्यापक, कल्याण-रुप, चन्द्रमा के समान शुभ्र-वर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।



४॰ सुखमय पारिवारिक जीवन
‘श्रीसीता जी के सहित भगवान् राम की स्तुति’ का नित्य पाठ करें।




“नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम, 
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰ ३)


अर्थः- नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम-भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ।।



५॰ सर्वोच्च पद प्राप्ति
श्री अत्रि मुनि द्वारा ‘श्रीराम-स्तुति’ का नित्य पाठ करें।
छंदः-
“नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥
पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥
व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥” (अरण्यकाण्ड)


‘मानस-पीयूष’ के अनुसार यह ‘रामचरितमानस’ की नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतः जीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति के सामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।



६॰ प्रतियोगिता में सफलता-प्राप्ति
श्री सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा श्रीराम-स्तुति का नित्य पाठ करें।




“श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥१॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥२॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥३॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥४॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥५॥
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥६॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥७॥” (अरण्यकाण्ड)




विशेषः 
“संशय-सर्प-ग्रसन-उरगादः, शमन-सुकर्कश-तर्क-विषादः।
भव-भञ्जन रञ्जन-सुर-यूथः, त्रातु सदा मे कृपा-वरुथः।।”
उपर्युक्त श्लोक अमोघ फल-दाता है। किसी भी प्रतियोगिता के साक्षात्कार में सफलता सुनिश्चित है।





७॰ सर्व अभिलाषा-पूर्ति
‘श्रीहनुमान जी कि स्तुति’ का नित्य पाठ करें।




“अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।” (सुन्दरकाण्ड, श्लो॰३)





८॰ सर्व-संकट-निवारण
‘रुद्राष्टक’ का नित्य पाठ करें।



॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥




निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥




तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥




चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥




प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥




कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥




न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥




न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥




रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥




॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥
विशेषः- उक्त ‘रुद्राष्टक’ को स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकार का शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा न हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भी तीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकर ‘नाग-पञ्चमी’ पर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।

श्रीरामरक्षास्तोत्रम्




अथ ध्यानम्‌
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌। वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम्॥
स्तोत्रम्
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌॥१॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम्‌।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌।
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः॥५॥
जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः।
स्कंधौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः॥६॥
करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः॥७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः।
उरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत्‌॥८॥
जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तकः।
पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत्‌।
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌॥१०॥
पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न दृष्टुमति शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥११॥
रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन्‌।
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌।
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ॥१३॥
वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्‌ ॥१४॥
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः।
तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥१५॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्‌।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्सनः प्रभुः ॥१६॥
तरुणौ रूप सम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌।
रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥१९॥
आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम्‌॥२०॥
सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा।
गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥२१॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ॥२२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः।
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥२३॥
इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयाऽन्वितः।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति न संशयः ॥२४॥
रामं दूवार्दलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम्‌।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः ॥२५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌।
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्तिं
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌॥२६॥
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥२७॥
श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः
स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु-
र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम्‌ ॥३१॥
लोकाभिरामं रणरङ्धीरं
राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं
श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्‌।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम्‌।
तर्जनं यमदूतानां राम रामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रामेशं भजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

इति श्रीबुधकौशिकमुनिविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम्
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