8/02/2010

भागवत से 6 - जूठा देने वाले और खाने वाले दोनों कुत्ते की योनी में जाते है

नारदजी   कहते है मै अपने पूर्व जन्म का वृतांत सुनाता हूँ. मै पूर्वजन्म में एक दासी का पुत्र था. मेरी माता ने मुझे चातुर्मास्य व्रत करनेवाले महात्माओ की सेवा में लगा किया था. मेरी पांच वर्ष की अवस्था  थी, मै और बालको के सामान खेलता कूदता नहीं था. कम बोलता था. यथा समय महात्माओं की सेवा करता था. दिन में एक बार महात्माओं का उच्छिष्ट प्रसाद ग्रहण करत था.
                                           नोच्छिश्तम   कस्यचिद दद्यात,  उच्छिष्ट  भोजिनः  श्वानः
इसके अनुसार जो पाक भांडो में बच जाता था वह प्रसाद ग्रहण करता था.

जूठा देने वाले और खाने वाले दोनों कुत्ते की योनी में जाते है. नारद जी के इस व्यव्हार से महात्माओं की कृपा हुई जिससे उनकी भगवद भक्ति में रूचि हो गई. वे महात्मा प्रतिदिन भगवान की कथा का गान किया करते था. नारद जी ने भी वह कथा सुनी. उससे सूतजी का  चित्त शुद्ध हो गया और भगवान में निश्चल भक्ति हो गई. चातुर्मास्य  के बाद जब महात्मा लोग जाने लगे तब उन्होंने भगवान के दिव्य ज्ञान का उपदेश दिया , जिससे नारदजी   पर भगवान की माया का प्रभाव कैसे पड़ता है इस रहस्य को जान गए.

संसार में तीनो तापो की यही एकमात्र औषधि है की जो कुछ कर्म करे  वह सब भगवान को अर्पण कर दे. आप तो बहुश्रुत है, इसलिए भगवान का यश इस प्रकार वर्णन करे. जिससे विद्वानी को भी जानने की कोई वस्तु शेष न रह जाए. संसार में पीड़ित मनुष्यों की शांति के लिए भगवच्चरित्र से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है.

इस प्रकार नारदजी के जन्म और कर्म का वृतांत सुनकर व्यासजी ने उनसे फिर पूछा-जब आपको उपदेश देकर महात्मा लोग चले गए तब आपने क्या किय? आपकी शेष आयु किस तरह व्यतीत हुई ? अन्तकाल में आपने शरीर का त्याग कैसे किया ? आपको पूर्जन्म की स्मृति कैसे रह गयी?

नारदजी बोले-मुझे उपदेश देकर जब महात्मा लोग चले गए तब मैंने जो कुछ किया उसे सुने. मेरी माता दासी थी. मै उसका अकेला पुत्र था. वह मुझसे बड़ा स्नेह रखती थी. मै चाहता था की माता का स्नेह कम हो और मुझसे छुट्टी मिले. एक समय रात्रि में मेरी माता गौ दुहने के लिए घर से बाहर निकली. मार्ग में सर्प ने उसे डस लिया और मर गयी. माता के मरण को भगवान का अनुग्रह मानकर मै उत्तर दिशा  की ओर चल पड़ा. मार्ग में बहुत से देश, नगर, ग्राम वन, उपवन  पार करता एक निर्जन वन में जा पंहुचा. उस समय मै बहुत थका और भूख प्यास से व्याकुल था. एक नदी के तट पर  जाकर  विश्राम किया और स्नानकर जल पिया, उससे मेरी थकावट दूर हो गई. तब मै एक पीपल के नीचे बैठा और महात्माओ के उपदेस के अनुशार वहा ध्यान करने लगा. सहसा मेरे ह्रदय में भगवान प्रगट हो गए.

भगवान के दर्शन करते ही मै आनंद समुद्र में डूब गया मेरे नेत्रों से अश्रुधारा  बहने लगी, शरीर में रोमांच हो आया और मुझे अपने पराये का कुछ भी ज्ञान न रहा. थोड़ी देर बाद भगवान की मूर्ती मेरे ह्रदय से अन्तर्हित हो गई और मेरी समाधी टूट गई, मेरा चित्त अत्यंत व्याकुल हो गया. जब फिर दूसरी बार मन को स्थिर कर भगवान के दर्शन  की इच्छा की तो वह रूप मुझे दिखाई नहीं दिया. तब अतृप्त की तरह मै व्याकुल हो उठा.

तब मुहे लक्ष्य कर आकाशवाणी हुई की अब इस जन्म  में तुमको मेरा दर्शन नहीं होगा, कारण अभी तुम्हारी वासनाए निवृत्त नहीं हुई है. इस शरीर का त्याग करने के पश्चात्  तुम मेरे पार्षद बनोगे और तब प्रलयकाल में भी तुम्हारी स्मृति नष्ट नहीं होगी. यह कहकर आकाशवाणी विरत हो गई, मैंने उसको सर से प्रणाम किया  और भगवान के नामो का गान करता हुआ प्रथ्वी पर भ्रमण करने लगा. मै सदा काल की प्रतीक्षा मै रहता था एक दिन अकस्मात् बिजली की तरह काल सामने आया और मेरा पांचभौतिक शरीर प्रथ्वी पर गिर पड़ा. मै तत्क्षण भगवान का पार्षद बन गया.

कल्पान्त में ब्रह्मा के साथ ही मै जलशायी नारायण के शरीर में प्रविष्ट हो गया. फिर श्रष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा से मै उत्पन्न हुआ. मेरी गति कही रूकती नहीं. भगवान की सेवा से चित्त जैसा शांत होता है, वैसा योग आदि साधन से नहीं होता. हे व्यासजी आपने जो पूछा था उसका उत्तर मैंने दे दिया और आपके अपरितोश  का कारण भी बता दिया

. सूतजी कहते है - हे शौनक यह कहकर देवर्षि नारद वीणा बजाते, हरिगुन गाते चले गए. अहो देवर्षि नारद धन्य है जो भगवान की कीर्ति गाते हुए क्लेशाक्रांत जीवो को अपनी वीणा  के सुमधुर स्वर से आनंदित करते है.