7/28/2010

श्रीमद्भागवत से - 3 - मंदमति मनुष्यों के कल्याणार्थ इस पुराण रुपी सूर्य का उदय हुआ

 भगवान ने पहले लोक रचना की इच्छा से पुरुष अवतार ग्रहण  किया था. उस समय भगवान, जिनके नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए एवं जिनके शरीर के अवयवो से समस्त लोक रचना संभव हुई, योग निद्रा का विस्तार कर जल में शयन कर रहे थे. विशुद्ध सत्त्वमय भगवान के इसी प्रधान रूप का योगी जन ज्ञान चक्षु से दर्शन करते है, इसमें भगवान के अनंत पैर, उरु, भुजा, मुख, शिर, कर्ण, नेत्र, नासिका आदि सुशोभित हो रहे  है. यह रूप बहुत से मुकुट, कुंडल आदि आभूश्नो  से देदीप्यमान है.
इसी रूप से भगवान के नाना अवतार होते है और फिर इसी में उनका लय हो जाता है, इसी के अंशांश ब्रह्मा, मरीचि तथा कश्यप से देवता, पशु पक्षी तथा मानुश्यादी योनिया उत्पन्न होती है. इसी रूप से जिन चौबीस अवतारों का प्रादुर्भाव हुआ था, उनके मंगलमय नामो का आप लोग श्रवण करे  -
१-सनकादी महर्षियों का अवतार, २-बारह अवतार , ३-नारदावतार, ४-नर narayan अवतार, ५-कपिल अवतार, ६-दत्तात्रेय अवतार, ७-यग्य अवतार, 8- रिषभ  अवतार, ९-प्रथू   का अवतार, १०-मत्यस्य अवतार, ११- कूर्म अवतार, १२-धन्वन्तरी का अवतार, १३-मोहिनी का अवतार, १४-नरसिंह  अवतार, १५-वामन  अवतार, १६-परशुराम अवतार, १७-व्यास अवतार, १८-राम अवतार, १९-बलदेवता अवतार, २०-श्री कृष्ण  अवतार, २१-हरी अवतार, २२-हंस अवतार, २३-बुद्ध अवतार और २४-कल्कि अवतार
इस प्रकार भगवान के असंख्य अवतार है और वे समय-समय पर प्रगट होकर जगत की रक्षा करते है. जो मनुष्य सायं प्रातः इन अवतारों का श्रवण और कीर्तन करता है वह दुखमय संसार से मुक्त हो जाता है.
जैसे निरुप आकाश में वायु के आश्रित मेघो की और वायु में पार्थिव रेणुओ की अज्ञानवश कल्पना की जाती है, वैसे ही द्रष्टा आत्मा में अज्ञानियो ने द्रश्य्त्व का आरोप किया है, ये दोनों  ही  जीव के बंधन हेतु संसार के कारण है, जब प्रेम लक्षणा भक्ति के द्वारा ज्ञान रुपी सूर्य का उदय होता है तब ये दोनों शरीर ज्ञान अग्नि में भस्म हो जाते है एवं जीव भगवान का साक्षात्कार   कर परम आनंद का अनुभव करता है, प्रेम लक्षणा भक्ति भावना के जन्म, कर्म तथा लीलाओ के कीर्तन और चिंतन से प्राप्त होती है.
यद्यपि देहाभिमानी जीव तर्क आदि कौशल के द्वारा भी भगवान की लीलाओ का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, तथापि जो निष्कपट भाव से अहंकार त्यागकर भगवान के चरण कमल मकरंद का पान करता है, उस पर शीघ्र  भगवत्कृपा होती है, जिससे उसे लीलाओ के ज्ञान के साथ-साथ भक्ति द्वारा भगवान के स्वरूप का ज्ञान बड़ी सरलता से प्राप्त हो जाता है,
श्रीमद्भागवत को पांचवा  वेद कहा गया है. इसमें भगवान के दिव्य मधुमय चरित्रों का वर्णन है, लोक कल्याण के लिए ही  इसका प्रादुर्भाव हुआ है, व्यासजी ने अपने पुत्र शुकदेवजी को इसका उपदेश किया था. शुकदेवजी ने गंगा के तट पर स्थित महाराज परीक्षित को इसे सुनाया. वही सूतजी ने भी इसका श्रवण किया.
भगवान श्री कृष्ण जब अपने धाम को चले गए, तब मंदमति मनुष्यों के कल्याणार्थ इस पुराण रुपी  सूर्य का उदय हुआ है. धर्म भी अब इसी के आश्रय में रहता है. यह छठे प्रश्न का उत्तर भी हो गया.