7/18/2010

स्त्रियों का ह्रदय बड़ा कठोर होता है इसलिए उनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए.

पिता के मरने पर एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को भी खूब पीटा और कहा jaldi ब्बता धन कंहा गडा है, नहीं तो लातो के प्रहार से तुझे मार ही डालूगा. पुत्र के भय से  व्याकुल धुधुली उसी रात कुए में गिरकर मर गयी. गोकर्ण पहले ही teerth यात्रा करने चले गए थे. उनका कोई शत्रु या मित्र न थे. घर में घुन्धुकारी अकेला रह गया था , उसने वहा पांच वेश्याये रख ली और चोरी के dhan से उनका पोषण कर कुकर्मो me निरत रहने लगा. एक दिन उन वेश्याओं ने उससे वस्त्र आभूषण लाने का आग्रह किया. वह कामांध  कही से बहुत से भूषण वस्त्र चोरी कर ले भी आया. सोने चांदी के बहुमूल्य सामान को देखकर रात्री में वेश्याओ ने विचार किया की यह तो प्रतिदिन ही चोरी करता है, एक दिन राजा इसे पकड़कर मार ही देगा और साथ में हमें भी मरकर सारा धन छीन लेगा. इसलिए हम स्वयं ही क्यों न इसे मरकर धन लेकर कही अन्यत्र चली जाय. ऐसा निश्चय कर  एक रात उन सबने सोते समय उसके हाथ पैर बाधकर गले में जलते अंगारे उसके मुख में ठूस दिए. अग्नि की ज्वाला से छटपटाकर वह मर गया, उसके मरते ही उन साहसी वेश्याओं ने वही गड्ढा खोदकर उसे गाड दिया. इस रहस्य का किसी को भी पता न चला . जब  लोग धुन्धुकारी का हाल पूछते तो वेशाए कह  देती की वह धन के लोभ में कही दूर चले गए है. आशा है, एक वर्ष में आ जायेगे.

स्त्रियों का ह्रदय बड़ा कठोर होता है इसलिए उनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए. पर यह बात पतिव्रताओ पर लागू नहीं hotee. बाद में वेश्याये  सब धन लेकर एक दिन कही अन्यत्र चली गई और धुधुकारी अपने कुकर्मो से बड़ा भयंकर प्रेत हो गया. वह वायु रूप धारणकर, भूख प्यास से व्याकुल इधर-उधर भटकता चिल्लाता फिरता था. गोकर्ण ने कुछ काल बाद लोगो से उसका मरना सुनकर उसके निमित्त विधिपूर्वक गया श्राद्ध कर दिया. वे जिस किसी तीर्थ में जाते, उसके निमित्त श्राद्ध किया करते थे, एक दिन तीर्थाटन करते वे अपने घर आये,

रात्री में आँगन में सो रहे थे की आधी रात के समय धुधुकारी भयंकर रूप धारणकर उनके पास आया. वह कभी भेड़, कभी हाथी, कभी भैसा, कभी राजा, कभी अग्नि बनकर और फिर कभी साधारण पुरुष के रूप उनके पास आ खड़ा होता

गोकर्ण ने धैर्यपूर्वक उससे पूछा-अरे, तू कौन है ? प्रेत है, पिशाच है अथवा राक्षस है ? कैसे ऐसी दुर्गति को प्राप्त हो गया है ? यह पूछने पर धुधुकारी भयंकर ध्वनिका  उच्च स्वर से रोने लगा किन्तु स्पष्ट कुछ बोल न सका. उसने केवल संकेत किया. तब गोकर्ण ने मन्त्र पढ़कर उसपर जल का छीटा  मारा, जिससे उसका कुछ पाप नष्ट हुआ और उसे बोलने की शती प्राप्त हुई. उसने कहा-

मै तुम्हारा ही भाई धुन्धुकारी हूँ. मेरे कुकर्मो की संख्या नहीं. मैंने स्वयं अपने ब्रह्मनत्व  का नाश कर डाला वेशाओ ने बुरी तरह मेरी हत्या कर मुझे गड्ढे में डाल दिया, जिससे मै प्रेत हो गया हूँ. केवल वायु पीकर रहता हूँ. मेरे दयालु भैया, मै बहुत प्यासा हूँ प्यासा हूँ. मुझे जल पिलाओ. मेरा मुख सुई के सामान है, मै स्वयं जल नहीं पी सकता, तुम्हारे वर दिया गया जल ही मुझे मिल सकेगा. मेरा उद्धार करो, मै बड़े कष्ट में हूँ. यह सुनकर गोकर्ण के नेत्रों में अश्रु छलक आये उन्होंने कहा-भैया मैंने तो तुम्हारे निमित्त गया में विधिपूर्वक पिंडदान भी कर दिया, फिर तुम मुक्त क्यों नहीं हुए ?

यह तो बड़ा आश्चर्य है, प्रेत ने कहा-भाई, गया में एक क्या सौ श्राद्ध  करने पर भी मेरी मुक्ते न होगी. आप कई दूसरा उपाय सोचे. यह सुनकर गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ. उसने कहा-भैया, तब तो तुम्हे इस योनी से मुक्त करना बड़ा ही कठिन है.

अच्छा इस समय तुम अपने स्थान पर चले जाओ, मै विचारकर तुम्हारी मुक्ति कोई दूसरा उपाय करूगा . गोकर्ण के कथनानुसार प्रेत अपने स्थान पर चला गया इधर गोकर्ण रात्री भर चिंतामग्न होकर उसकी मुक्ति का उपाय सोचते रहे किन्तु उन्हें कोई उपाय सूझा नहीं . तब गोकर्ण ने बड़े-बड़े विद्वानों से इसके बारे में परामर्श किया किन्तु कोई भी कुछ उपाय बता न सका. इस पर सबकी सम्मति से गोकर्ण ने मन्त्र द्वारा सूर्य का स्ताम्भंकर उन्ही से मुक्ति का उपाय पूछा. सूर्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा-
                                         भागवत के सप्ताह वाचन से इसकी मुक्ति होगी.
यह सुनकर गोकर्ण बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने सप्ताह बांचने का निश्चय किया. इस निश्चय को सुनकर देश और ग्राम से बहुत बड़ी संख्या में जनता आने लगी. प्रेत भी अपने लिए स्थान खोजता हुआ सात ग्रंथि वाले एक बांस में आ घुसा. गोकर्ण ने प्रथम स्कंध से कथा आरम्भ की. सायंकाल जब कथा समाप्त हुई तब बांस की एक ग्रंथि फट गई. दूसरे दिन दूसरी ग्रंथी , तीसरे दिन तीसरी ग्रंथि, इसी प्रकार सात दिन में बॉस की सातो ग्रंथिया फट गई और धुन्धुकारी प्रेत योनी  से मुक्त होकर पीताम्बर पहने मुकुट और कुण्डलो से सुशोभित दिव्य रूप धारणकर प्रकट हो गया, गोकर्ण को सप्रेम  प्रणाम कर वह बोला-भैया, आपने मेरा उद्धार कर दिया, प्रेत  बाधा दूर करने वाली भागवत की यह कथा धन्य है,
जिसके प्रभाव से मै आज प्रेत  योनी  से मुक्त हो गया हूँ. सप्ताह भी धन्य है, जिससे भगवद्धाम बैकुंठ की प्राप्ति होती है, जब मनुष्य सप्ताह सुनने का संकल्प करता है, तब उसके पाप कापने लगते है और कहते है यह कथा तो हमारा प्रलय ही कर डालेगी अब हम भागकर कहा जाय. पूर्वजन्म के पुण्यो से इस भारत वर्ष में जन्म पाकर भी जिसने सप्ताह की कथा का श्रवण नहीं किया, उसका जन्म देवताओं ने व्यर्थ  बताया है, नाना प्रकार के सुन्दर सुस्वादु पकवानों के भोजन से जिस शरीर  को परिपुष्ट किया जाता है, वह शरीर नश्वर है, इस प्रकार अस्थिर शरीर से जो मनुष्य स्थिर धर्म aadi का उपार्जन नहीं  करता वह निरा पशु ही है,
जिस भागवत की कथा से सूखे बांस की ग्रंथिय फट गई उस कथा में दत्तचित्त होकर बैठे हुए मनुष्य की ह्रदय ग्रंथि नष्ट हो जाय तो आश्चर्य ही क्या है, इस कथा के श्रवण से भगवान शीघ्र ही ह्रदय में आ विराजते है और श्रोता के समस्त संशय  तथा पाप ताप  नष्ट कर उसे मुक्त कर देते  है.