9/25/2011

कलियुग चार स्थानों में निवास करता है

सरस्वती नदी के तट पर रजा परीक्षित ने कलि को देखा जो डंडे से गौ और वृषभ को मार रहा था. वृषभ मारे भय के थोडा-थोडा मूतता हुआ काप रहा था. वह शूद्र रुपी कलि गौ को लातो से मार रहा था. जिससे वह रो रही थी. वह भूखी थी, खाने को भूसा चाहती भी थी. 


रथ पर बैठ राजा परीक्षित ने वह बीभत्स द्रश्य देखा, तो वे कड़क कर बोले-अरे दुष्ट! तू कौन है. इस प्रकार वृषभ और गौ को क्यों सता रहा है? साथ ही गौ और वृषभ से भी कहा - हे माता मेरे रहते तुम क्यों रोती हो? हे वृषभ तुम भी मत डरो. मै इस दुष्ट को दंड दूगा. तुम यह बताओ की तुम्हारे तीन पैर किसने काटे ? तुम्हे विरूप करने वालो ने मेरे पूर्वज पांडवो की धवल कीर्ति को कलंकित  किया है. मेरे रहते निरपराध प्राणी को सताने वाला साक्षात् ईंद्र ही क्यों न हो, मै उसकी भी भुजा जड़ से उखाड़ डालूगा.


वृषभ रूपी धर्म यह सुनकर बोला -  हे पुरुषश्रेष्ठ आप उन पांडवो के बंशधर है, जिनके विविध गुणों से रीझ कर भगवान् ने दूत सारथी आदि तक का काम किया था. आपका इस प्रकार भयभीतो को अभय देना उचित ही है किन्तु जिसने मुझे क्लेश दिया है , उसे आप ही स्वयं समझे. मै इस विषय में कुछ भी नहीं कह सकता क्योकि क्लेशदाता कौन है ?


अद्वैतवादी विद्वान् कहते है आत्मा के अज्ञान से विलसित यह सुख-दुःख रूप द्वैत मिथ्या है. अतः सुख-दुःख का कारण कोई नहीं है. तार्किक सुख दुःख का कारण आत्मा को मानते है. ज्योतिषी गृहादी देवताओं को मीमांसक कर्म को नास्तिक स्वभाव को साख्य्वादी  स्वभाव शब्द से गुण परिणाम को सुख दुःख कारण मानते है. अतः आप ही अपनी बुद्धि से क्लेशदाता का निर्णय कर लीजिये. 


राजा परीक्षित ने विचार किया की सुख-दुःख मिथ्या तो नहीं हो सकते क्योकि उनकी अनुभूति आत्मा में होती है. जीवात्मा भी कारण नहीं हो सकता क्योकि वह परतंत्र है. गृह भी कारण नहीं हो सकते क्योकि वे कालचक्र के अधीन है. कर्म भी कारण नहीं हो सकते है क्योकि वे जड़ कालचक्र के अधीन है. कर्म भी कारण नहीं हो सकते है क्योकि वे जड़ है. स्वभाव भी कारण नहीं हो सकता क्योकि वह व्यभिचार दूषित  है. अतः सुख दुःख के कारण ये कोई भी नहीं हो सकते है. 


तदनंतर राजा परीक्षित ने कहा - हे धर्म ! तुम ठीक कहते हो. तुम वृषभ रूपी  साक्षात् धर्म ही हो, इसलिए घातक को जानते हुए भी उसे बताना नहीं चाहते हो क्योकि अधर्म करनेवाले को जिस नरक आदि की प्राप्ति होती है वही प्राप्ति सूचना देने वाले  भी होते है.


यह विचार कर राजा ने अपनी बुद्धि से दुःख का कारण मन को जान लिया और प्रथ्वी रूप गौ तथा वृषभ रूप  धर्म  को आश्वासन देते हुए कलि को मारने के लिए तीक्ष्ण तलवार खीच ली.


राजा परीक्षित को मानरे के लिए आया देखकर कलि ने अपने सर से मुकुट उतारकर फेक दिया और भयभीत होकर उनके चरणों में जा गिरा उसे चरणों में पड़ा देखकर परीक्षित हँसते हुए बोले - 


मै पांडव वंशी  हूँ. मेरे समक्ष हाथ जोड़ने वाले शरणागत को फिर भय नहीं रहता कितु मेरे राज्य से निकल जा. तू यहाँ रह नहीं सकता क्योकि तेरे रहते राजाओं के शरीर में अधर्म के परिवार लोभ, अनृत,  कलह, दम्भादी प्रवेश करेगे. यह सुनकर हाथ जोड़ नतमस्तक हो कलि बोला - हे महाराज मै जहा कही भी क्यों न रहू वही मुझे आप धनुष बाड़ लिए खड़े दिखाई पड़ते है. मै कहा रहू ? यह आप ही बताये. 


कलि की ऐसी प्रार्थना करने पर राजा परीक्षित ने उसको रहने के लिए चार स्थान बताये -


द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्र अधर्मशचतुर्विधः 

१ द्युत स्थान, २ मदिरालय, ३ वेश्यालय और ४ वधस्थान (कसाई खाना) जिनमे वह अनृत, मद, काम, रजो मूल हिंसा और वैर के साथ रहता है. 


पुनः उसके प्रार्थना करने पर उसे रहने के लिए एक स्थान सुवर्ण और दिया. जिसमे इन चारो का तथा बैर का भी निवास है. इसलिए अभ्युदय  चाहने वाले पुरुषो को इन पांचो का सेवन नहीं करना चाहिए. बाद में राजा परीक्षित ने धर्म के शेष तीन पद तप, शौच और दया को जोड़कर उसके चारो पैर पूरे कर दिए. प्रथ्वी को भी आश्वासन देकर संतुष्ट किया.