11/21/2011

मित्र और अमित्रो की पहचान (महाभारत के शांति पर्व से)

मित्र और अमित्रो की पहचान (महाभारत के शांति पर्व से)
युधिष्ठिर ने पूछा  -  पितामह ! छोटे से छोटा काम भी अकेले किसी की सहाया के बिना करना कठिन हो जाता है. फिर राजा का कार्य तो दूसरे की सहायता लिए बिना हो ही कैसे सकता है ? इसलिए मंत्री का होना  आवश्यक है. अब आप बताइए राजा का मंत्री कैसा होना चाहिए? उसका स्वभाव और आचरण किस तरह का हो, कैसे व्यक्ति पर विश्वास किया जाया और कैसे पर नहीं?


भीष्मजी ने कहा  -  राजा के चार प्रकार के मित्र होते है - सहार्थ (जो किसी शर्त पर एक दुसरे की सहायता के लिए मित्रता करते है ), भजमान (जिनके साथ पुश्तैनी मित्रता हो ), सहज ( जिनके के साथ नजदीकी रिश्तेदारी हो उन्हें सहज मित्र कहते है), और कृत्रिम (धन आदि देकर अपनाए हुए लोग होते है). पाचवा मित्र धर्मात्मा होता है, वह किसी एक का पक्षपाती नहीं होता और न दोनों पक्षों से वेतन लेकर कपटपूर्वक दोनों का ही मित्र बना रहता है. जिधर धर्म का पल्ला मजबूत रहता है उसी पक्ष का वह आश्रय ग्रहण करता है अथवा जो राजा धर्म में स्थित होता है वही उसे अपनी ओर खीच लेता है.


उपर्युक्त मित्रो में से भजमान और सहज श्रेष्ठ समझे जाते है शेष दो की ओर से तो सदा सशंक रहना चाहिए. वास्तव में अपने कार्य को द्रष्टि में रख सब प्रकार के मित्रो से ही सावधान रहना चाहिए. राजा को मित्रो की रक्षा करने में कभी असावधानी नहीं करनी चाहिए क्योकि असावधान राजा का सब लोग तिरस्कार करते है. 
मनुष्य का चित्त चंचल होता है, भला मनुष्य बुरा और बुरा भला हो जाया करता है, शत्रु मित्र और मित्र शत्रु बन जाता है, अतः किस पर कौन विश्वास करे? 


इसलिए मुख्य-मुख्य कार्यो को दूसरो पर न छोड़कर अपने  सामने ही करना चाहिए. किसी पर भी पूरा-पूरा विश्वास कर लेने से धर्म और अर्थ दोनों का नाश होता है. दूसरो पर पूरी तरह विश्वास करना अकाल म्रत्यु को मोल लेना है, अन्धविश्वासी को विपत्ति में पड़ना पड़ता है. वह जिस पर विश्वास करता है उसी की इच्छा  पर उसका जीना निर्भर रहता है. इसलिए राजा को कुछ लोगो पर विश्वास भी करना चाहिए और उनकी ओर से सतर्क भी रहना चाहिए. यही सनातन राजनीती है.


अपने अभाव में जिस मनुष्य का राज्य पर कब्ज़ा हो सकता हो उससे सदा चौकन्ना रहा चाहिए क्योकि विज्ञ पुरुषो ने उसकी शत्रुओ में गड़ना की है. 
जो मनुष्य रजा का अभुदय देख उसकीऔर भी अधिक उन्नति चाहे और अवनत होने पर बहुत दुखी हो जाय वही उत्तम मित्र है.
अपने न रहने पर जिस व्यक्ति को विशेष हानि पहुचने  की सम्भावना हो उस पर पिता के समान विश्वास करना चाहिए. और जब अपने धन की वृद्धि हुई  हो तो यथा शक्ति उसको भी सम्रद्ध शाली बनाना चाहिए. जो धर्म के कामो में भी राजा को नुकसान से बचने का ध्यान रखता है उसकी हानि देखकर जिसको भय होता है उस ही उत्तम मित्र समझो नुकसान चाहने वाले तो शत्रु भी बनाये गए है.
जो मित्र की उन्नति देखकर जलता नहीं और विपत्ति देखकर घबरा उठता है वह मित्र अपने आत्मा के सामान है.
जिसका रूप रंग सुन्दर और स्वर मीठा  हो जो क्षमाशील, ईर्ष्या रहित , प्रतिष्ठित और कुलीन हो उसकी  श्रेणी पूर्वोक्त मित्र से भी बढ़कर है. 
जिसकी बुद्धि अच्छी और स्मरण शक्ति  तीव्र हो, जो कार्य साधने  में कुशल और स्वभावतः दयालु हो, कभी मान या अपमान हो जाने पर जिसके ह्रदय में दुर्भाव नहीं आता ऐसा मनुष्य यदि अत्यंत सम्मानित मित्र हो तो उसे तुम अपने घर में मंत्री बनाकर रख सकते हो वह तुम्हारे विशेष आदर का पात्र है.. उसको राजकीय गुप्त विचारो तथा धर्म और अर्थ की प्रकृति से परिचित रखना. उसके ऊपर तुम्हारा पिता के सामान विश्वाह होना चाहिए. 
एक काम पर एक ही व्यक्ति को नियुक्त करना दो या तीन को नहीं, क्योकि उनमे परस्पर अनबन  हो जाने की सम्भावना रहती है  कारण की एक कार्य पर नियुक्त हुए अनेक व्यक्तियों में प्रायः मतभेद होता ही है.


जो कीर्ति को प्रधानता देता और मर्यादा के भीतर कायम रखता है, शक्तिशाली पुरुषो से द्वेष और अनर्थ नहीं करता, कामना, भय, लोभ अथवा क्रोध से भी जो धर्म का त्याग नहीं करता जिसमे कार्यकुशलता तथा आवश्कता के अनुरूप बातचीत करने की पूरी योग्यता हो उसे तुम अपना प्रधान मंत्री बनाना . जो कुलीन, शीलवान, शहनशील, डींग न मारनेवाले, शूरवीर, आर्य, विद्वान तथा कर्तव्य अकर्तव्य को समझने में कुशल हो उन्हें अमात्य के पद पर बैठाना  एवं सत्कारपूर्वक सुख और सुविधा देना. ये तुम्हारे अच्छे सहायक सिद्ध हे और सब तरह के कामो की देखभाल करेगे.


युधिष्ठिर तुम अपने कुटुम्बियो को म्रत्यु  के सामान समझकर उनसे सदा डरते रहना. जैसे पड़ोसी राजा अपने पास के राजा की उन्नति नहीं सह सकता, उसी प्रकार एक कुटुम्बी दुसरे कुटुम्बी का अभुदय नहीं देख सकता. जिसके कुटुम्बी या सगे संबंधी नहीं है  उसको भी सुख नहीं मिलता इसलिए कुटुम्बी जनों  की अवहेलना नहीं करना चाहिए. बंधू बांधव से हीन मनुष्य को दुसरे लोग दबाते है. यदि गैर आदमी अपने जातिवाले का अपमान कर रहा हो तो अपने जाती वाले के अपमान को वह अपना ही अपमान समझेगा. इस प्रकार कुटुम्बी जनों  के रहने में गुड भी है और अवगुड भी. कुटुंब का व्यक्ति न अनुग्रह मानता है न नमस्कार करता है. उनमे भलाई बुराई दोनों देखने में आती है.


राजा का कर्तव्य है की वह अपने जातीय बंधुओ का वाडी और क्रिया से सत्कार करे. सदा ही उनकी भलाई करता रहे, कभी कोई बुराई न होने दे. उनपर विश्वास तो न करे किन्तु विश्वास करनेवाले की भांति ही उनके साथ वर्ताव करे. उनमे दोष है या गुड इसकी चर्चा न करे. जो पुरुष सदा सावधान रहकर ऐसा बर्ताव करता है, उसके शत्रु भी  प्रसन्न होकर उसके साथ मित्रता का बर्ताव करने लगते है. जो कुटुम्बी, सगे संबंधी , मित्र, शत्रु तथा उदासीन व्यक्तियों के साथ इस नीति के अनुसार व्यवहार करता है, उसका सुयश चिर काल तक  बना रहता है.