8/18/2013

वेद को इश्वर की वाणी इसलिए कहते हैं

वेद को इश्वर की वाणी इसलिए कहते हैं, क्यूँकी वो योग मे स्थित होकर लिखा गया है. योग मे सहित होने का मतलब है कोई ब्यक्ति अपनी आत्मा को जानने के बाद जब परमात्मा से संपर्क मे होता है, तो सारे ज्ञान को पा लेता है. क्यूँकी परमात्मा समस्त ज्ञान का स्रोत है. उस स्थिति मे वो ज्ञान इन्द्रियों द्वारा प्राप्त न होने की वजह से पूर्ण सत्य होता है और ईश्वरीय वाणी होता है जिसमे गलती की कोई गुन्जायिस नहीं होती है. कोई भी व्यक्ती इस तरह से इस ज्ञान को योग के माध्यम से समाधी मे स्थित होकर प्राप्त कर सकता है. गीता भी योग मे स्थित होकर कही गयी थी इसलिए वो भी वेद के बराबर ही मान्यता रखती है .....

चौरासी लाख योनिया


आपने अपने परिवार के बड़े-बुजुर्गों के मुख से ये तो अवश्य ही सुना होगा :
"84 लाख योनियों के पश्चात ये मनुष्य जन्म प्राप्त होता है अतः मनुष्य को जीवन में उचित कर्म करने चाहिए"

पदम् पुराण में हमें एक श्लोक मिलता है,इस प्रथ्वी पर एककोशिकीय, बहुकोशिकीय, थल चर, जल चर तथा नभ चर आदि कोटि के जिव मिलते है। इनकी न केवल संख्या अपितु वर्गीकरण की जानकारी भी हमें पद्म पुराण में मिलती है ।

जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यकः
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशवः, चतुर लक्षाणी मानवः 

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जलज/ जलीय जिव/जलचर (Water based life forms) – 9 लाख (0.9 million)
स्थिर अर्थात पेड़ पोधे (Immobile implying plants and trees) – 20 लाख (2.0 million)
सरीसृप/कृमी/कीड़े-मकोड़े (Reptiles) – 11 लाख (1.1 million) 
पक्षी/नभचर (Birds) – 10 लाख 1.0 million
स्थलीय/थलचर (terrestrial animals) – 30 लाख (3.0 million)
मानवीय नस्ल के (human-like animals) – 4 लाख 0.4 million
कुल = 84 लाख । 

इस प्रकार हमें 7000 वर्ष पुराने मात्र एक ही श्लोक में न केवल पृथ्वी पर उपस्थित प्रजातियों की संख्या मिलती है वरन उनका वर्गीकरण भी मिलता है । 

आधुनिक विज्ञान का मत :

आधुनिक जीवविज्ञानी लगभग 13 लाख (1.3 million) पृथ्वी पर उपस्थित जीवों तथा प्रजातियों का नाम पता लगा चुके है तथा उनका ये भी कहना है की अभी भी हमारा आंकलन जारी है ऐसी लाखों प्रजातियाँ की खोज, नाम तथा अध्याय अभी शेष है जो धरती पर उपस्थित है । ये अनुमान के आधार पर प्रतिवर्ष लगभग 15000 नयी प्रजातियां सामने आ रही है । 
अभी तक लगभग 13 लाख की खोज की गई है ये लगभग पिछले 200 सालो की खोज है ।