7/30/2010

श्रीमद्भागवत का श्रवण, मनन तथा चिंतन करने से भगवान सरलता से ह्रदय में स्थिर हो जाते है

अभी तक आपने पढ़ा श्रीमद भागवत का महात्म्य अब प्रथम स्कंध की कथा प्रारंभ हो रही है. सावधान होकर आप इसका श्रवण कर. द्वापर के अंत में व्यासजी ने प्रकट होकर इसकी रच की थी. यह कथा कल्पवृक्ष के सामान मनुष्यो क सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाली है. इसमें बारह स्कंध, ३३५ अध्याय और अठारह हजार श्लोक है एवं शुकदेव और राजा परीक्षित का संबाद है. इसी को भागवत कहते है. इस कथा की निर्विघ्न समाप्ति हो, इसलिए व्यासजी आरम्भ में मंगलाचरण द्वारा भगवान शीक्रष्ण का ध्यान कर रहे है. आप लोग भी हाथ जोड़कर भगवान का ध्यान करे.

                                जन्माद्यस्य यतों व्यादी तर्ताश चार्थे श्वाभिग्याह स्वराट
                                                                               तेने ब्रह्म ह्रदाय   आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूर्यः
                                तेजोवारिम्रदाम यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गो मृषा

                                                                धाम्ना स्वेन सदा निरस्त्कुह्कम सत्यम परम धीमहि.


जो भगवान विश्व की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले है. जिनका आकाश आदि कार्यो में, अन्वय (सम्बन्ध) एवं अकार्य खापुश्पादी से व्यतिरेक ( आभाव) है, जो सर्वग्य, सर्वशक्तिमान तथा प्रकाशस्वरूप है, जिन्होंने संकल्पमात्र से ब्रह्मजी को वेद का उपदेश किया था, जिसमे विवेकी विद्वानों को भी मोह हो जाता है, मृग मरीचिका के सामान मिथ्या जगत भी जिनके आधार से सत्यव्रत प्रतीत हो रहा है एवं जिन्होंने अपने तेज से भक्तो का अज्ञान दूर किया है, उन सत्यस्वरूप परमात्मा श्रीकृष्ण का हम ध्यान करते है.


इस ग्रन्थ में भक्ति लक्षण परमधर्म का निरूपण किया गया है, जिसमे भगवान श्रीकृष्ण का ज्ञान बड़ी सरलता से प्राप्त हो जाता है, इसका श्रवण, मनन तथा चिंतन करने से जिस प्रकार भगवान सरलता से ह्रदय में स्थिर हो जाते है, उस प्रकार अन्य ग्रंथो के अध्ययन से नहीं होते यही इसकी विशेषता है.

भागवत 4 स्त्री, शूद्र आदि के कल्यार्थ महाभारत की रचना हुई

शुकदेवजी ने यह कथा परीक्षित को सुनाई थी. यह कथा किस स्थान में, किस कारण और किस युग में आरम्भ हुई ? किससे प्रेरति होकर व्यासजी ने यह संहिता बनायीं ?

व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी समदर्शी और योगी थे. उनकी कही  आसक्ति और भेद्द्रष्टि नहीं थी. वह उत्पन्न होते ही सब कुछ त्यागकर वन में जा रहे थे. मार्ग में एक सरोवर था . उसमे अप्सराये नग्न होकर जलविहार कर रही थी. शुकदेव को देखकर उन अप्सराओ को न तो लज्जा हुई  और न उन्होंने वस्त्र धारण किये . शुकदेवजी के हे पुत्र ! हे पुत्र! हे पुत्र !  कहते जब वृद्ध अनग्न व्यासजी आये, तब उन स्त्रियों को बड़ी लज्जा हुई. जल से निकलकर उन्होंने तुरंत अपने-अपने वस्त्र पहन लिए. यह देखकर व्यासजी को बड़ा आश्चर्य हुआ. उन्होंने इसका कारण अप्सराओ से पूछा , तब वे बोली-

भगवन आपकी द्रष्टि में स्त्री-पुरुष का भेद  है. किन्तु आपके पुत्र की पवित्र द्रष्टि में वह भेद नहीं है, व्यासजी यह सुनकर चकित हो मौन हो गए.

ऐसे निर्लिप्त अनासक्त, ज्ञानी शुकदेवजी के साथ परीक्षित का संवाद कैसे हुआ ? जो उन्मत्त और मूक के सामान अवधूत वेश में हस्तिनापुर के आस-पास इधर-उधर विचर करते थे. उन्हें लोगो  ने कैसे पहचाना इसके अतिरिक्त  जब वह घूमते-फिरते कभी किसी गृहस्थ के यहाँ चले जाते, तो गोदोहन काल तक ही ठहरते थे, अधिक नहीं. तब परीक्षित को सात दिनों तक उन्होंने कथा कैसे सुनाई ? हमारे इस संदेह को कृपया आप निवृत्त करे.

शुकदेव सा वक्ता होना कठिन है और श्रोता परीक्षित सा होना भी कठिन है, क्योंकि दोनों के जन्म और कर्म आश्चर्यमय ही है. महाराज परीक्षित ने किस कारण राज्य का परित्याग किया  ? अन्न-जल का परित्याग कर वे गंगातट पर क्यों गए ? और वही उन्होंने प्राणों का परित्याग भी क्यों किया  ? आप हमारे इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने की कृपा करे.

व्यासजी द्वापर में महर्षि पराशर से उत्पन्न हुए. वह एक दिन  सरस्वती नदी के तट पर आचमन कर बैठे थे. सूर्य का उदय हो रहा था, इसी समय ब्यासजी के मन में विचार आया की आगे कलियुग आनेवाला है. इसमें मनुष्य अल्पायु, दुर्बुद्धि, अश्रद्धालु और नास्तिक होगे. दिव्य चक्षु से यह सब देखकर समस्त वर्ण और आश्रमों के हित का विचार कर उन्होंने एक वेद को चार भागो  में विभक्त किया और अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को उन्हें पढ़ा  दिया. उन्ही की कृपा से मेरे पिता रोमहर्षण इतिहास पुराण के ज्ञाता हुए. स्त्री, शूद्र आदि के कल्यार्थ उन्होंने महाभारत की रचना की. यह सब करने पर भी प्राणियों के कल्याणार्थ सर्वदा तत्पर व्यासजी के ह्रदय में संतोष नहीं हुआ. उन्होंने विचार किया की मैंने दृढ संकल्प से वेद, गुरु और अग्नि की  शुश्रूषा करते हुए सदा उनका आदर और आज्ञापालन किया है. फिर भी खेद है की मेरी आत्मा में संतोष नहीं हुआ. इसका कारण क्या  है ?

अगले अंक में शुकदेव जी की जन्म कथा पढ़े