9/04/2011

क्या हम इतना भी नहीं कर सकते

   
भगवान की लीला बडी रसमयी ही. अपनी लीला के रूप मे वे स्वयं अपने को ही प्रकट करते है. भगवान और भगवान की लीला ये दोनो भिन्न नहीं  है. एक ही है. एक प्रकार से याह संपूर्ण संसार भगवान की लीला ही है. यह सब नाम रूप उनही के है, वे ही है, परंतु वे इतने ही नही इनसे परे भी है. उनकी सत्ता उनका स्वरूप और उनकी लीला अनिर्वचनीय है. 

जब जीव प्रमादवश भगवान के  स्वरूप और लीलाओं को भूलकर  उनसे भिन्न प्राकृत  पदार्थों से सुख पाने की  आशा एवं अभिलाषा करता  है और बहिर्मुख होकर  उन्हीं के  पीछे भटकने लगता है, तब वह उद्वेग, अशांति एवं दुख से घिर जाता है। भगवान वैसी स्थिति में भी उसे बार-बार चेतावनी देते रहते हैं और प्रतीक्षा किया करते  हैं की  वह अभिमान तथा भौतिक  पदार्थों का भरोसा छोडक़र सच्चे ह्दय से पुकारते  तो मै अभी चल कर  उसे गले से लगा लूँ, उस पर अपना अनन्त प्रेम प्रकट करू  तथा सर्वदा के  लिए सुख  शान्ति के  साम्राज्य में वास दे दूँ।

परंतु जीव की  यह मोहनिद्रा टूटे तब तो यह आयोजन संभव हो। भगवान की  दया तो क्या वर्णन किया  जाए? उन्होने तो समस्त जीवों को  दया के  समुद्र में ही रख छोड़ा है। उनके  अनन्त उपकार,  अपार कृपा  और अपरिमित प्रेम से सब के  सब दबे हुए हैं।

जब अभिमान, कामना  और भय के  थपेड़ों से व्याकुल होकर , रजोगुण के  नाना व्यापारों से ऊबकर नरक , स्वर्ग आदि में चक्कर खाते-खाते परेशान होकार भी लोग सात्वित्क्ता , दैवी सम्पत्ति एवं भगवान की  शरण नहीं ग्रहण करते उलटे  तमोगुण की  प्रगाढ़ निद्रा में सो जाते हैं, चराचर प्रलय हो जाता है, तब यदि भगवान प्रकृति   को  क्षुब्ध करते  इन्हें जगाते नहीं तो उस मोह निद्रा से कैसे छुटकारा  मिलता? सोते से जगाया, ज्ञान का  संचार किया । तम से रज में लाकर  सत्त्व की  ओर अग्रसर किया। अब क्या जीवन दान करणे  वाले प्रभु की  शरण लेना ही हमारा कर्तव्य  नहीं है? क्या हम जतना भी नहीं कर सकते ?

केवळ कृतज्ञता  की  दृष्टि से ही नहीं चल सकता  । हम चाहे जितना प्रयत्न कारे , जितना हाथ-पैर पीटें, उनके  बिना हमारे सुख शांति आदि स्थायी भी तो नही रह सकते । दो चार दिन के  लिए कुछ     गुणों की  छाया भले ही आ जाए, भगवान के  बिना उनका  टिकू  होना असंभव है। यह आज की  बात नहीं है सर्वदा से ऐसा ही होता आया है।