7/15/2010

वृन्दावन में अलौकिक अनुभूती हुई

 ಅ उद्धवजी ने भगवन श्रीकृष्ण से प्रार्थना की की  महाराज, आप तो अपने भक्तों का कार्य पूरा करके, उनको सुख देकर अंतर्धान हो जावेगे. फिर आपका, आपकी लीला का, आपके द्वारा प्रतिपादित धर्म का दर्शन कहाँ होगा?

भगवन श्रीकृष्ण ने कहा की उद्धवजी मैं पहले तो अंतर्धान होकर वैकुण्ठ या क्षीरसागर में चला जाया करता था. पर अवकी वर अंतर्धान होने पर मैं वैकुण्ठ या क्षीरसागर में नहीं जाऊंगा, श्रीमद्भागवत-रूप समुद्र में ही निवास करूंगा-

तिरोधाय प्रविश्तोयम श्रीमाद्भाग्वातार्दावं.

अतः भगवन श्रीकृष्ण बाहर से तो अंतर्धान हुए, परन्तु श्रीमद्भागवत रूप अमृत समुद्र में आकर बैठ गए. वही भगवान की प्रत्यक्षा वन्ग्मायी शब्दमयी मूर्ति हम लोगो की आँखों के सामने है-

तेनेयं वान्ग्मायी मूर्तिः प्रत्यक्षण वर्तते हरेह.

भक्त लोग श्रीक्रिश्नाव्तार के समय अपने नेत्रों और अन्य समग्र इन्द्रियों के द्वारा जिस रस का आस्वादन करे हैं, वही रस आज भी हम श्रीमद्भागवत के श्रवण द्वारा प्राप्त कर सकते है. वह सुख परीक्षा का विषय नहीं, प्रत्यक्षा का विषय है, क्योंकि भगवान कहीं पर्लूक में नहीं गए, अंतर्धान नहीं हुए, श्रीमद्भागवत के रूप में स्वयं प्रकट है. 

इसीसे जब यह प्रश् उठा की भाग्वाताम्रत किसे पिलाया जाय- परीक्षित को या देवताओं को तो श्री शुकदेवजी महाराज ने देवताओं को उपेक्षित कर दिया, और परीक्षित को ही भाग्व्ताम्रत पिलाया. भला कहाँ तो श्रीमाद्भाग्वाटका अमृत और कहाँ स्वर्ग का अमृत? दोनों की दोई तुलना नहीं है.

एक बात ध्यान देना योग्य है, जिसपर पहले लौकिक-द्रष्टि से विचार करत हैं. नारदजी ने सम्पूर्ण प्रथिवी में भ्रमण किया और फिर धर्मप्रधान  भारतवर्ष में, भरतखंड  में आये. यहाँ उन्होंने भिन्न-भिन्न तीर्थों की यात्रा की, लेकिन उन्हें कही भी शांति, सुख तथा धर्म परायणता  के दर्शन नहीं हुए. अत्यंत व्याकुल होकर जब वे वृन्दावन में यामुनाजीके तट पर आये तब वहां उनको अलौकिक अनुभूति हुई. जो वस्तु आँखों से नहीं दिखती, वह उन्हें वृन्दावन में देखने को मिली.

भक्ति-ज्ञान-वैराग्य - ये सब अमूर्त भाव है. इनकी मूर्ती का नहीं, इनके भाव का ही दर्शन होता है. ह्रदय में ही भक्ति आती है, ज्ञान आता है, वैराग्य आता है. लौकिक दशा में इन अलौकिक देवताओं का साक्षात्कार किसी को नहीं होता.

परन्तु नारदजी जब वृन्दावन में आये तो वहां उनके सामने अमूर्त भी मूर्त हो गया, भाव भी साकार हो गया, उन्होंने देखा की वहां भक्ती तो है युवती-सुन्दर, भगवन्मयी किन्तु उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्ध हैं अर्थात वृन्दावन में भक्ति का तो बहुत आदर है, परन्तु ज्ञान-वैराग्य का आदर नहीं है. लोगो ने ज्ञान वैराग्य से रहित भक्ति को स्वीकार किया है.