9/30/2011

शास्त्र तो अनेक है किन्तु उनसे विशेष लाभ होना संभव नहीं...!

श्री शुकदेवजी बोले - यद्यपि संसार में सुनने योग्य शास्त्र अनेक है किन्तु उनसे विशेष  लाभ होना संभव नहीं है. मनुष्यों की आयु बहुतछोटी  है उसमे भी रात्रियाँ  निद्रा और स्त्री संग से बीत जाती है और दिन धन की चिंता एवं कुटुंब के भरण पोषण  से बीत जाते है. मिथ्याभूत, नश्वर देह, पुत्र, पत्नी आदि में आसक्त हो प्रमत्त  पुरुष संसार में सबका मरण देखता हुआ भी अपने  मरण पर विचार नहीं करता, इसलिए निश्छल मन से केवल एकमात्र भगवन ही श्रवण, मनन और चिंतन करना चाहिए. यद्यपि मेरी निर्गुण ब्रह्म में स्थिति थी  फिर भी भगवान् की लीलाओं से आकृष्ट होकर मैंने श्रीमद्भागवत का अध्ययन अपने  पिताजी से किया वही मै तुमको सुनाता हूँ क्योकि तुम भगवान के अनन्य भक्त हो. उसके श्रवण से शीघ्र ही भगवान में तुम्हारा अनुराग हो जाएगा.
        कामी पुरुषो के तत्तत फलो का साधन, मुमुक्षु पुरुषो के मोक्ष का साधन और योगी तथा ज्ञानी पुरुषो के जीवन का मुख्य फल भगवान नाम कीर्तन  ही बतलाया गया है. उसमे किसी प्रकार का भय नहीं है.
जो वर्ष बीत गए, उनकी चिंता छोड़ दो. राजा खट्वांग ने एक मुहूर्तमे ही अपना परलोक बना लिया था. तुहारे जीवन की अवधि तो अभी सात दिन शेष है. तुम सरलता से अपना परलक बना सकते हो. अन्तकाल आने पर मनुष्य को घबडाना नहीं चाहिए. देह, स्त्री और पुत्र की ममता त्यागकर किसी पुण्यतीर्थ में चला जाना चाहिए. वहा  स्नानादि से शुद्ध  होकर ओंकार का जप करना चाहिए और धीरे-धीरे विषयों से मन को हटाकर भगवान् के स्वरूप में लगा देना चाहिए.
         ब्रह्माण्ड में जो चौदह लोक है वे भगवन के शरीर के अवयव कहे गए है. विराट  पुरुष भगवन के पादमूल पाताल कहा गया है, एड़ी तथा पाद का अग्रभाग रसातल, दोनों गुल्फ महातल, जंघा तलातल, दो जानू सुतल, दो उरू वितल और अतल, जघन महीतल और नाभि  नभस्तल कहा गया है. विराट भगवन का वक्षस्थल स्वर्गलोक, वादन (मुख) जनलोक, ललाट तपोलोक और शिरोभाग सत्यलोक कहा गया है. तेजोमय इंद्र आदि देवता. भगवान् की भुजाये ,, दिशाए कर्ण, शब्द श्रोत्रेंद्रिय, अश्वनी कुमार नासिका पुट  , गंध घ्राण इन्द्रिय   तथा अग्नि भगवान् का मुख कहा गया है. भगवान् के शरीर की नाडिया नदिया है, रोम वृक्ष, श्वास  वायु गति काल तथा कर्म संसार कहा गया है.
        ब्राह्मण भगवान् के मुख, क्षत्रिय बाहू, वैश्य उरू तथा शूद्र पैर कहे गए है. इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, गृह, नक्षत्र, तारा, समुद्र, द्वीप, पर्वत, पशु, पक्षी, कीट-पतंग सब भगवान् के शरीर के अवयव कहे गए है.
        इस प्रकार संक्षेप से मैंने विराट भगवन के शरीर अवयवो का सन्निवेस रचना तुमसे कही, जिसमे सम्पूर्ण लोगो की स्थिति है. तुम इसी स्थूल रूप में अपने मन को  स्थिर करो. इससे अन्य कोई वस्तु ध्येय नहीं है. इस धरना से तुम इस मिथ्या जगत में छिपे हुए आनंद निधि सत्यमूर्ति भगवन को प्राप्त कर लोगे और फिर संसार में तुम्हारा आवागमन न होगा.

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।

मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।।


भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।


याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्।।2।।



वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।।


सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।


वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।।



उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।


सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।।

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा


यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।



यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां

वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।।


नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्


रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।



स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-

भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।।7।।