1/10/2011

अपमान प्रसाद का जनक

शिष्य - भगवान! कई बार अपमान का बड़ा कटु अनुभव होता है, लोग तरह-तरह से अपमान कर देते है, क्या करू ?
गुरुदेव - जब तुम्हे  अपमान का अनुभव होता है, तब तुम ऐसी भूमि में उतर आये रहते हो जहा अपमान तुम्हारा स्पर्श कर सकता है. तुम ऐसी भूमि में ऐसी स्थिति में रहा करो जहा अपमान की पहुच ही नहीं है.
(मै सोचने लगा, जब मुझे अपमान की अनुभूति होती है, तब मै कहा रहता हूँ? अपमान होता ही किसका है?

(१)  मै उस समय  सम्मान या और किसी कामना के पाश में बद्ध रहता हूँ. उस समय मेरा निवास स्थान काम होता है, राम नहीं.
(२)  मै उस समय शरीर, मन और बुद्धि इनके अभिमान में मत्त रहता हूँ या इनके विलासों में भूला रहता हूँ.
(३)  मै अपने भगवान् को भूलकर, आत्मा को भूलकर अहंकार या ममकार के अधीन रहता हूँ.

अपना अपमान स्वयं मै ही करता हूँ, मुझे स्वयं अपने को ही दंड देना चाहिए. दूसरो के द्वारा हुआ अपमान मेरा स्पर्श नहीं कर सकता)

शिष्य- ठीक है गुरुदेव! अपमान मेरा स्पर्श नहीं करता.

गुरुदेव - इतना ही नहीं, बेटा! अपमान तो तुम्हारी आत्मज्योति को जाग्रत करने वाला है. तुम्हारी विस्मृति को नष्ट करके स्मृति को ताज़ी बनानेवाला है. अपमान क्षोभ का नहीं, प्रसाद का जनक है. अपमान होते ही प्रसन्नता से खिल उठना चाहिए की मेरी स्मृति ताजी करने के लिए साक्षात् भगवान् के दूत, नहीं-नहीं स्वयं भगवान् आये है. महान सौभाग्य है - जीवन में यह अपूर्व अवसर है.

शिष्य - ठीक है गुरुदेव! आपकी कृपा और आशीर्वचन सर्वदा मेरे साथ है.

अखंडानंद सरस्वतीजी महाराज के आनंद रस रत्नाकर से साभार