3/06/2011

दुःख भी कृपा

मूल बात यह है की जब हमारे मन के अनुसार होता है तब तो हम भगवान् की कृपा मानते  है और जब हमारे मन के विपरीत होता है, तब भगवान् की कृपा नही मानते है. इसका अर्थ यह हुआ की हम  कृपा को पहचानते नहीं है और उसको महत्त्व नहीं देते है, बल्कि अपनी वासना और अपनी इच्छा  को ही महत्त्व देते है.

भगवान् का जो विधान है  वह सर्वथा मंगलमय है. उसमे कमी तभी मालूम पड़ती है जब हम भगवान् की इच्छा को न देखकर अपनी वासना के अनुसार चाहते है की हमको जो पसंद है और जरूरी मालूम पड़ता है, वही काम भगवान् करे.

भगवान् की कृपा को यदि आप विशेष रूप से देखेगे की भगवान् इतना धन दे तो बड़े कृपालु, ऐसा तन दे तो बड़े कृपालु, ऐसा ऐश्वर्य दे तो बड़े कृपालु और ऐसा परिवार दे तो बड़े कृपालु, तो आप कृपा को नहीं पहचान सकेगे.

जब भगवान् हमारे मन का न करते है तब, उसमे हमारी ऐसी तैयारी होनी चाहिए हम अपने अहम् से, अपने अभिमान से, अपनी ममता से व अपनी इच्छा से भी ज्यादा, भगवान् की इच्छा का आदर करे और कहे की यह तो भगवान् ने बहुत बढ़िया किया जो आज अपने मन का तो किया.

भगवान् की ओर  से जो आता है उसमे भगवान् का हाथ देखिये. भगवान् तो सर्वग्य है, सर्वशक्ति है, परम दयालु है. वे जो क्रिया हमारे सामने भेजते है, जो वस्तु भेजते है, जो भोग भेजते है, जो परिवार भेजते है, उन सबमे उनकी कृपा ही भरपूर रही है. भगवान् की कृपा का आदर हर रूप में करने से भगवान् की कृपा का अनुभव होने लगेगा. उसमे अपनी इच्छा की प्रधानता न रखकर, भगवान् की इच्छा की प्रधानता रखनी  चाहिए. भक्ति सिद्धांत भी यही है और वेदांत का भी सिद्धांत यही है हम अपनी इच्छा जितना-जितना शिथिल करते  जायेगे, उतना-उतना अपने स्वरूप की अनुभूति के पास पहुचते जायेगे.

असलियत में प्रभु की कृपा को पहचानना ही कठिन है. जिनके मन में संसार से राग होता है, वे उनकी कृपा को नहीं पहचानते है और जिनके मन में संसार से वैराग्य होता है, वे प्रत्येक परिस्थिति में भगवान् का हाथ देखते है, भगवान् की कृपा देखते है.

प्रभु मूरत कृपामयी  है, इनके कृपामय  हाथो से कभी किसी का अमंगल होता ही नई है तो यह जो हम लोगो को दुःख  सरीखा मालूम  पड़ता है उसमे भी भगवान् की कृपा है और मंगल ही मंगल है.