1/08/2011

बयार की ओर पीठ करनी चाहिए

जैसे हवा की आंधी आती है वैसे ही दुनिया में भावनाओं की आंधी आती है. बयार की ओर पीठ करनी चाहिए, सामना नहीं करना चाहिए. धैर्य रखो-सह लो.
जैसे सोते समय सपना आता है वैसे ही जागते समय तुम निकम्मे बैठे हो इसलिए पिछली बाते याद आ आकर तुम्हे  परेशान कर रही है. उनमे धीर रहो.
अच्छा  कभी भविष्य की कल्पना आयी- हमको छेह महीने बाद यह काम करना है, तो तुम यह नहीं समझना की आज जो आया है, वह छेह महीने तक बना रहेगा, अरे वह घंटे-आध घंटे में ढीला पड़ेगा की दूसरा वेग आवेगा, फिर तीसरा वेग आवेगा-यह तो सपने पर सपने आते-जाते रहते है- धैर्य से इनको आने दो और मिट जाने दो, उनका मूल्यांकन मत करो-इसकी कोई कीमत नहीं है, यह नहीं की अच्छे ही अच्छे ही आवे. जो यह कोशिश करता है की हमारे मन में अच्छे ही अच्छे भाव, विचार आवे, उसको भी बहुत दुःख होता है. अरे बाबा, सपने पर जैसे किसी का नियंत्रण नहीं रहता है, सपना कभी अच्छा आता है, कभी बुरा आता है वैसे ही यह जो मनोराज्य होता है यह अनियंत्रित मन में होता है. अरे आयी धारा बह गयी-गंगाजी में कभी फूल माला बह गए, कभी मुर्दा बह गया, ऐसे ही अपने मन में भी दोनों प्रकार के द्रश्य आते है.

पहले ठाकुर साहब लोग होते थे न, तो अपने दरवाजे पर पलंग पर बैठे रहते और हुक्का गुडगुडाते रहते . किसी अछूत के घर में ब्याह था तो उसका लड़का घोड़े पर चढ़कर निकला. तो पूछा यह कौन जा रहा है घोड़े पर? पाता चला की अमुक अछूत है. तो बोले पकड़कर ले आओ - तुम हमारे दरवाजे के सामने से घोड़े पर चढ़कर निकलते हो ? और जूता लेकर के मारने लगे. तो उस जमीदार की जैसी मनोवृत्ति थी वैसी मनोवृत्ति उस साधक  की है जो मन में कोई खराब बात फुरफुरा गयी और लेकर जूता उसको मारने के लिए दौड़ पड़े. तो, एक तो गन्दी मनोवृत्ति आयी और दूसरे उस पर क्रोध ? धैर्य रखो

तुम्हारा जो ज्ञान है वह स्वच्छ है, निर्मल है, वह निर्विषय है, वह निर्द्वंद है, वह अविनाशी है, वह परिपूर्ण है. यह जो तुम्हारा ज्ञान है न, ज्ञानस्वरूप, इस पर द्रश्य की कोई छाप छूटनेवाली नहीं है-द्रश्य आवेगा और अपना तमाशा दिखाकर बह जाएगा, तुम कहे  को परेशान होते हो ? इसको धैर्य बोलते है.
धैर्य-बाहर कोई मरे चाहे  जरे, कोई आये चाहे जाए, चाहे गरीबी हो चाहे अमीरी हो बाहर और मन में चाहे कैसा भी सपना आये और कैसा भी मनोराज्य होवे, उसको मनोराज्य मात्रा समझो, उसको स्वप्नमात्र समझो. उसको यह मत समझो की तुम्हारे कलेजे में पहाड़ घुस गया. हलके रहो और अपनी जगह पर बैठे रहो  धीर.

तो इस प्रकार जो बाहर या भीतर परिस्थितिया आती-जाती है उनकी ओर से, उनकी चोट से बचकर-धीर होना है, उसकी चोट अपने ऊपर मत लगने दो-अरे आया आया, गया, गया.

स्वामी श्री अखान्दनद सरस्वती जी महाराज के आनंद रस रत्नाकर से साभार