7/17/2010

कुत्ते पालने वाला तथा चोर वह निपट चंडाल सिद्ध हुआ

तुंगभद्रा  नदी के तट पर  एक अत्यंत रमणीय नगर था. उसमे आत्मदेव नामक एक तेजस्वी ब्रह्मण रहता था जो श्रोत एवं स्मार्त कर्म में पारंगत था. धनी होते हुए भी वह भिक्षु वृत्ति करता था. उसकी धुन्धुली नाम की पत्नी बड़ी ही कृपण एवं क्रूर  स्वभाव की थी. अकारण ही झगडा कर वह pushtee भी अपनी ही बात की करती थी . ऐसे ही गृहस्थ जीवन में दोनों का बहुत समय बीत गया किन्तु कोई संतान न हुई. बाद में पुत्र के निमित्त नाना प्रकार के दान अनुष्ठान किये, पर कोई फल nahee. हुआ  एक दिन चिंता से व्याकुल हो आत्मदेव वन में चला गया. वहां मध्यान्ह में पानी पीने वह एक तालाब पर गया. जल पीकर वह दुखिया वही बैठ गया. दो घड़ी बाद एक सन्यासी वहा आये. वह उनके चरणों पर गिर कर रोने लगा . सन्यासी ने kaha - अरे ब्रह्मण, रोते क्यों हो ? कौन सी चिंता  है ? अपने दुःख का कुछ कारण तो कहो. ब्रह्मण  ने कहा  - महाराज, मैं अपना दुःख क्या कहू ! मैं बड़ा अभागा हूँ. मेरे पित्तर  आसूओ को पीकर रहते है. मेरी दी हुई  वस्तु देवता या ब्रह्मण भी ग्रहण नहीं करते . संतान न होने से ही मै अत्यंत दुखित हूँ. यहाँ प्राण त्यागने आया हूँ. पुत्र के बिना जीवन या कुल सब व्यर्थ है. अपना दुःख मै कहा तक बताऊ. मैंने जो गौ पाली, वह तक बंध्या हो गयी. वृक्ष लगाया, वह भी सूख गया. कोई मुझे फल दे जाता है तो वह भी मेरे हांथों में आते ही सूख जाता है,. ऐसे भाग्यहीन निरवंशी के जीने से क्या लाभ.
महाराज आप महादयावन  है. नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीती, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, मेघ अपने लिए जल नहीं बरसते, संत महात्माओं की विभूतिया परोपकार के लिए होती है.

जो अपने से दूसरे के द्वारा अपने परिवार पर दीनों  पर अपने भ्रत्यो पर दया नहीं करता उसके जीवन से क्या  लाभ यो तो कौआ भी जीता है और अपना पेट भरता है. अर्थात जो दया या उपकार नहीं करता वह दूसरे जन्मा में कौआ होता है.

यह कहकर वह ब्रह्मण जोर-जोर से चिल्लाकर रोने लगा. उसे दुखित देखकर सन्यासी को दया आ गई. उन्होंने उसके मस्तक में लिखित ब्रह्माक्षर बांचे और कहा- हे ब्रह्मण , पुत्र का यह मोह छोड़ दो. कर्म की गति  बड़ी बलवती है. उसे कोई टाल नहीं सकता. विवेक का आश्रय लेकर संसार वासना त्याग दे. मैंने तुम्हारा प्रारब्ध  देख लिया है. उसमे सात जन्म तक तेरे पुत्र होने का योग नहीं है.

याद रखो संतान से तुम्हे सुख न होगा. रजा सगर एवं अंग की तरह दुःख ही भोगना पड़ेगा. इसलिए पुत्र का आग्रह छोड़ दो. संन्यास में सर्वथा सुख ही सुख है. ब्रह्मण ने कहा - दीनदयालु, इस सूखे विवेक से मेरा क्या होगा ? जैसे भी हो, आप मुझे पुत्र प्राप्ती का वर दे. अन्यथा मैं अभी आपके ही चरणों  में प्राण त्याग दूगा.

ब्रह्मण का ऐसा आग्रह देखकर सन्यासी ने आम का एक फल उसके हाँथ में दिया और कहा - जाओ अपनी पत्नी को यह फल खिला देना. उससे तुम्हारे अत्यंत सुन्दर एक पुत्र होगा. यह कहकर सन्यासी चले गए. ब्रह्मण भी लौटकर घर आया. पत्नी को खाने के लिए वह फल देकर स्वयं किसी कार्य से बाहर चला गया.

इधर उसकी कुटिल  पत्नी ने अपनी सखी से रोकर कहा - हे सखी, अब मुझे बड़ी चिंता हो रही है. इस फल को मैं नहीं खाऊगी. इससे गर्भ होकर मेरा पेट बढ़ जाएगा. भूख मारी जाएगी. घर का काम काज भी न कर पाऊगी . उठाना बैठना भी कठिन हो जाएगा. कहीं गर्भ टेढ़ा हो गया तो मैं मर ही जाऊगी. मुझे अस्वस्थ देखकर कही मेरी ननद ही सब सामान उठा न ले जाय. पुत्र  का लालन-पालन भी एक बड़ी समस्या है. मेरी समझ में तो बंध्या या विधवा नारीया सर्वथा सुखी है. ऐसे ही अनेक कुतर्क कर उसने वह फल नहीं खाया. जब पति ने आकर उससे पुछा की तुमने फल खाया तब उसने कह दिया हाँ खिला लिया.

एक दिन देवात  उसके घर उसकी छोटी बहन आयी. उसने सारा वृतांत अपनी बहन को कह सुनाया . वह बोली तू चिंता न कर. मेरे गर्भ है. मैं अपने बच्चे को तुझे दे दूंगी. तब तक तू  गर्भवती बनकर गुप्तरूप से घर में बैठी रह. मेरे पतिदेव को अपने स्वामी से धन दिला देना. वे बच्चा सौप देने में आपत्ती  न करेंगे. मैं प्रचारित करा दूंगी की मेरा छेह मॉस का बच्चा मर गया. प्रतिदिन आकर मैं तेरे बच्चे का पालन पोषण करती रहूगी. तू  परीक्षार्थ यह फल गौ को खिला दे./

स्त्री स्वाभाव से धुन्धुली ने वैसा ही किया. समय आने पर उसकी बहन के  बालक हुआ और वह चुप चाप आकर एकांत में उसे अपना बच्चा दे गयी. पुत्र का जन्म सुनते ही आत्मदेव आनंद विभोर  हो उठे. दरवाजे पर बाजों के साथ ही मांगलिक गान भी होने लगे. पत्नी ने स्वामी से कहा - मेरे स्तनों में दूध नहीं  है. ऊपर के दूध से इसका पालन  कठिन होगा. इसलिए आप मेरी बहन को बुला ले. वह बच्चे का पोषण कर देगी. सुना है, उसका बच्चा मर गया. पति ने ऐसा ही किया. उधर तीन मास बाद गौ के भी बच्चा हुआ. वह बालक इतना सुन्दर था की उसे देखने दूर-दूर से लोग आने लगे. उसके कान गौ के सामान होने से पति ने उसका नान गोकर्ण रखा. आगे चलकर वह बड़ा पंडित एवं ज्ञानी हुआ. इधर धुन्धुली का पुत्र धुन्धुकारी हुआ.

वह महा क्रूर प्रकृति का, दुराचारी एवं वेश्यागामी निकला. आचार  विचार से हीन वह दीन और अंधे प्राणियों को सताता था, दूसरों का घर जला डालता था. कुत्ते पालने वाला तथा चोर वह निपट चंडाल सिद्ध हुआ. खेल में बालको को ले जाकर कुए में डाल देता. उसने वेश्याओ के कुसंग में पड़कर पिता का सारा धन नष्ट कर डाला. एक दिन पिता को पीटकर वह उसके सोने-चांदी के सरे बर्तन ले गया. पिता को इससे बड़ा दुःख हुआ. वह रो रोकर कहने लगे की अब मैं कहा जाऊ, क्या करू, मेरा दुःख कौन दूर करेगा ? पुत्र न होना अच्छा है, किन्तु कुपुत्र का होना अच्छा नहीं.

उसी समय गोकर्ण ने आकर कहा-पिताजी, आप दुःख न करे. यह संसार ही असार  है, यहाँ कौन किसका पुत्र और किसका धन.  इन वस्तुओ में आसक्ति करने वाला सर्वदा जलता ही रहता है.  इसलिए इन सबका मोह त्यागकर वन गमन करे.

पिताजी शरीर में हड्डी, मांस और रुधिर ही तो भरा है, आप इसमें अहंबुद्धि न करे, स्त्री-पुत्रादि की ममता त्यागकर जगत की क्षणभंगुरता पर ध्यान दें और वैराग्य धारण कर भगवान की भक्ती में लग जाए . इससे आपका सम्पूर्ण दुःख निवृत्त हो जायेगा.

काम्य धर्मों का त्याग कर निष्काम धर्म का आचरण करे, सत्पुरुषों का संग करे, विषय वासना को ह्रदय से हटा दे एवं दूसरो की स्तुति निंदा में न पड़कर भागवत कथा रूपी अमृत का सदा पान  करे.

इस प्रकार पुत्र के उपदेश से आत्मदेव वन में चले गए और वहा प्रतिदिन भगवान श्रीकृष्ण की सेवा एवं भागवत के  दशम स्कंध के पाठ से भागवत-स्वरूप को प्राप्त हो गए.

शेष आगे के अंक में

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