7/16/2010

छान्दोग्य उपनिषद ने उपाय बताया - श्रीमदभागवत का श्रवण करो

नारदजी ने सोचा की ज्ञान और वैराग्य के बिना तो भक्ति पूर्ण होती  ही नहीं.   यदि भक्ति में ज्ञान और वैराग्य  नहीं  है तो भक्ति किसकी? जिस भगवान की भक्ति की जाती है उनका ही दर्शन नहीं हो रहा है, ज्ञान नहीं हो रहा है और जिस प्रपंच से, संसार से मन को हटाकर भगवान की भक्ति की जाती है, उसके प्रति वैराग्य नहीं है. यदि  भगवान से प्रेम हो तो संसार से अर्थात ममता से, मोह से और उन समस्त संबंधों से, जिनमे हम फंसे हुए है, हमें वैराग्य होना चाहिए.

पर नारद जी को न तो वहां जाग्रतावस्था में वैराग्य  दिखा और न ज्ञान. ये दोनों भक्ति के पुत्र है, फल है. जब भक्तिभाव ह्रदय में आता है तब भजनीय भगवान का ज्ञान होता है और उसके सिवाय किसी  दूसरे से राग-द्वेष नहीं होता. राग-देवश  की शिथिलता, राग-द्वेष के  अभाव का नाम ही वैराग्य है. हम किसी एक से तो प्रेम करें और दुसरे से द्वेष करें तो इसका फल यह होगा के हम जिससे राग-द्वेष करेंगे वह आकर भगवान की जगह हमारे ह्रदय में बैठ जायगा. फिर भगवान नहीं दिखेंगे, हमारे ह्रदय में वह शत्रु दीखेंगा जिससे द्वेष है, वह मित्र दिखेगा- जिससे राग है. इस प्रकार भगवान के स्थान पर संसार की नफरत, दोनी नहीं चलती. वहां तो ह्रदय में शुद्ध रूप से भगवान होने चाहिए.

नारदजी एक ओर तो संसार की अशांति से, संघर्ष से, वैमनस्यसे, तीर्थ आदि पवित्र स्थानों में भी काम क्रोध की अधिकता से दुखी थे ही, दूसरी ओर भक्ति की अपूर्णता, अस्वस्थता तथा अप्रसन्नता देखकर और भी दुखी हो गए, नारदजी ने भक्ति की प्रार्थना पर उसे सुखी करने का उपाय सोच, ध्यान किया. इतने में आकाशवाणी हुई की तुम्हारे मन में जो दुःख है, भक्ति को जो क्लेश  है, ज्ञान वैराग्य की जो मूर्छा है, उसके निवारण का उपाय जब तुम्हे संत मिलेंगे तब बताएँगे.

इसके बाद नारदजी ने  अपने गुरु सनकादिकों की शरण में गए. सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमा - ये  चारों श्रुति प्रसिद्ध मुनीश्वर है. इन्होने तत्वोप्देश करके नारदजी का शोक दूर किया. छान्दोग्य उपनिषद ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य को जाग्रत करने के लिए यह उपाय बताया की  श्रीमदभागवत का श्रवण करो. फिर उन्होंने स्वयं ही श्रीमद्भागवत का श्रवण कराया और उसके फलस्वरूप भक्ति, ज्ञान और वैराग्य पुष्ट-तुष्ट हो गए.

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