10/03/2011

शरीर निर्वाह के लिए जितना भोग अपेक्षित हो उतना ही ग्रहण करना चाहिए,

मन की धारणा
शुकदेवजी बोले - हे राजन ! ईसी धारणा द्वारा ब्रह्मा ने प्रलय काल में नष्ट अपनी  स्मृति को प्राप्त कर विश्व की श्रश्ती  की थी. वेदों में नाना प्रकार के यग्य आदि  कर्मो का जो वर्णन मिलता है, उनके फल स्वर्गादी भोगी पदार्थ सब नश्वर और मिथ्या है. उनमे आसक्ति नहीं करनी चाहिए. हां, इस लोक में शरीर निर्वाह के लिए जितना भोग अपेक्षित हो उतना  ही ग्रहण करना चाहिए, उससे अधिक नहीं. यदि वे भोग बिना परिश्रम के प्राप्त हो जायतो उनके लिए चेष्टा भी नहीं करनी चाहिए. 


जैसे प्रथ्वी के रहते शय्या की बाहु के रहते तकिया की, अंजलि के  रहते नाना प्रकार के पात्रो की तथा वल्कलो के रहते वस्त्रो की आवश्यकता नहीं है.
लंगोटी के लिए क्या मार्ग में चीथड़े नहीं पड़े है ? खाने को वृक्ष क्या भिक्षा नहीदेगे ? नदिया क्या सूख गई ? रहने को गुफाये क्या बंद है. शरणागत भक्तो की रक्षा क्या भगवान् नहीं करते ? दुःख है की फिर भी विद्वान् पुरुष लक्ष्मी  में मद से अंधे इन उन्मत्त धनिकों का सेवन न जाने क्यों करते है ? संसार के सभी पदार्थ नाशवान है. जीवो के प्रिय भगवान् श्रीकृष्ण ही अविनाशी है और वे तुम्हारे ह्रदय में ही विराजमान है. तुम मन से उनकी  धारणा करो. वे बड़े ही सुन्दर है. उनकी चार भुजाये है, जिनमे वे शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये रहते है. मुख उनका हास्ययुक्त है, सब अंगो में वे दिव्य आभूषण धारण किये रहते है. उनकी चितवन अपूर्व स्नेहभरी है. चरण से लेकर मुख पर्यंत भगवान् के एक-एक अंग का प्रेम से ध्यान करते जाओ. जब मुख तक पहुच जाओ तब केवल उनके हास्य युक्त मुख का ही ध्यान करते रहो.

साप्ताहिक श्रीमद भागवत कथा लेखक आचार्य राममूर्ति शास्त्री से साभार 

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