9/27/2010

भगवदिच्छा के बिना जब एक पत्ता तक नहीं हिल सकता

सूतजी कहते है- हे शौनक ! उसी समय युधिष्ठिर ने शरशय्या  पर  लेटे भीष्मसे अपने मन की शांति के लिए विविध धर्मो को पूछा. भीष्मजी ने बहुत से आख्यानो एवं इतिहासों द्वारा वर्णधर्म, आश्रमधर्म, भाग्वाद्धर्म , स्त्रीध्रम आदि का उपायों के सहित गंभीर  विवेचन किया और कहा -  हे राजन ! तुम अपने को करता मानकर क्यों शोकाकुल  होते हो. भगवदिच्छा के बिना जब एक पत्ता तक नहीं हिल सकता तब क्या तुम इन अक्षौहिणी सेनाओं का संहार करने वाले हो सकते हो ? तुम्हारा सामर्थ्य ही क्या है ? स्वयं भगवान ने श्रीमुख से गीता में जो कहा है उसे भी तुम भूल रहे हो. उसका स्मरण करो , भगवान ने कहा है -
द्रोण, भीष्म आदि सेनाओं  के समस्त वीरो को मैंने ही मारा है. तुम व्यर्थ शोक क्यों करते हो इत्यादि कहकर समझाया, जिससे युधिस्ठिर का शोक निवृत्त हुआ और उनके मन को पूर्ण शांति मिली. धर्म का उपदेश करते हुए जब उत्तरायण का समय आया तब भीष्म ने अपने वाणी रोक कर सामने खड़े चत्रभुज  भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करते हुए उनमे अपने मन लगा दिया.
इस विसुद्ध धारणा से उनकी सब वासनाए और भगवान के कृपा कटाक्ष  से शस्त्रों की पीड़ा भी दूर हो गयी. वे शरीर का त्याग करते हुए प्रसन्न चित्त से भगवान की स्तुति  करने लगे.

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