8/01/2010

मनुष्य को दुःख प्रयत्न के बिन ही प्राप्त होता है

खिन्न चित्त व्यासजी को देखकर देवर्षि नारद मुस्कुराते हुए बोले - आप अपने को अपूर्ण सा मानकर उदास क्यों है ? व्यासजी बोले-हे नारदजी!आपने जो कुछ कहा, वह सब सत्य है. फिर भी मुझे संतोष नहीं हो रह है. इसका कारण कृपया  आप बताये ? मुझमे क्या न्यूनता  रह गयी है ? इसे भी अपनी दिव्य दृष्टि  से देखने की कृपा करे.

नारदजी बोले-हे मुनिवर! सब कुछ करने पर भी आपने भगवान के निर्मल यश का प्रधान रूप से वर्णन नहीं किया. इसीसे आपकी आत्मा में परितोष नहीं है  यही आपमें न्यूनता रह गयी है. हे मुने महाभारत में जिस प्रकार आपने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन किया, उस प्रकार भगवान की महिमा का वर्णन आप नहीं कर सके.

जिस मानुष की वाणी भगवान के जगत पवित्र यश का वर्णन नहीं कर करती, वह मनुष्य कूड़ा घर के सामान है. ज्ञानी पुरुष उससे वैसे ही संपर्क नहीं रखते जैसे मानसरोवर में विहार करनेवाले हंस काकतीर्थ में नहीं रमते. भगवान के निर्मल गुणों का वर्णन करनेवाली रचना आदि अशुद्ध भी हो तो भी वह जनता की पापराशी को भस्म कर देती है, कारण उससे भगवान के मंगलमय नामो का स्मरण होता है, जिनका भक्तजन ह्रदय से अभिनन्दन करते है, अधिक क्या कहे, मोक्ष देनेवाला जो नैष्कर्म्य ज्ञान है, वह भी यदि भगवान की भक्ति से रहित हो, तो उसका भी मूल्य कुछ नहीं वह बंधन निवृत्ति नहीं कर सकता.

ऐसी स्थिति में भगवद्भक्ति से हीन सकाम और निष्काम कर्म का तो कहना ही क्या है ? इसलिए हे महाभाग जीवो की बंधन निवृत्ति के लिए समाधी द्वारा आप भगवान के चरित्रों का स्मरण कर उनका वर्णन कर. भगवान के चरित्रों को छोड़कर मनुष्य जो कुछ वर्णन करता है उससे उसकी बुद्धि कही सुस्थिर नहीं रहती बायु के वेग से कम्पित नौका के सामान डगमगाती ही रहती है, जिस प्रकार मनुष्य को दुःख प्रयत्न के बिन ही प्राप्त होता है उसी प्रकार विषय सुख भी प्राप्त होता  है, उसके लिए प्रयत्न करना उचित नहीं, निवृत्ति मार्ग से कोई विरला ही ज्ञानी पुरुष भगवत सम्बन्धी सुख प्राप्तकर सकता है. सब इसके अधिकारी नहीं है, इसलिए सर्व साधारण के कल्याणार्थ आप भगवान की लीलाओ का ही विशेष रूप से वर्णन करे.

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