7/21/2010

कलियुग में ब्राह्मण शरीर जन्म से ही प्राप्त होता है, तपस्या आदि से नहीं.

श्रीमद्भागवत  की कथा किसके मुख से सुनी जाये  उसके भी नियम है, इस विषय में कौशिकी संहिता में लिखा है की जो वैष्णव नहीं,  उनके मुख से कथा कदापि नहीं सुननी चाहिए. भागवत की कथा तो विशेष रूप से वैष्णव के मुख से ही सुननी चाहिए. पूर्वाचार्यों ने वैष्णव   शब्द का अर्थ ब्राह्मण  बताया है.

ब्राह्म्नेतर  से इसका कभी श्रवण न करे. गुरु भी ब्राह्मण  को ही बनावे. अन्य जातीय को नहीं.

'पतिरेव गुरुह स्त्रीणाम'  के अनुसार स्त्री  पति से अतिरिक्त किसी को गुरु न बनावे. विधवा स्त्री  भी पति का चित्र सामने रखकर गुरु बुद्धि से मस्की पूजा कर. अन्य किसी  को गुरु न बनावे,  अन्यथा उनका परलोक बिगड़ जाता है.

कौशिकी संहिता में आगे लिखा है की लेटकर कथा सुननेवाले अजगर की योनी तथा कथावाचक व्यासजी को बिना प्रणाम किये कथा सुननेवाले वृक्ष की योनी को प्राप्त होते है,

किन्तु यह नियम रोगी पर लागू नहीं होता. वक्ता के कथा स्थल पर पहुचने पर सबको उनका अभिवादन  करना चाहिए. श्रोतागण कथा  के मध्य में किसी प्रकार का संदेह होने पर वक्ता से प्रश्न  न करे. जो  कुछ भी प्रष्टव्य हो कथा के अंत में विनयपूर्वक पूछे.  अन्यथा कथा रस भंग होने के साथ-साथ अनावासर पर  पूछ्ने वाले पर सरस्वती देवी कुपित होती है, जिससे वह जन्मान्तर में गूगा होता है. तदनंतर तीन जन्मो तक मूर्ख रहकर अंत में कौए की योनी प्राप्त करता है.
 व्यास आसन पर आसीन आचार्य साक्षात् व्यासरूप माने  गए  है. वह ब्राह्मण, राजा, वृद्ध, पिता, पितामह, तथा गुरु से भी पूजनीय होते है. इसलिए वह किसी को प्रणाम न करे. न मुख से अमंगल शब्द का उच्चारण करे और न किसी का अभ्युत्थान  ही करे . ऐसा करने से उनका धर्म नष्ट नहीं होता.

ब्रह्माजी ने ब्राहमण  में ही आचार्यत्व की स्थापना की है,  अन्य वर्णों में नहीं. तपश्चर्या आदि के द्वारा भी अन्य वर्ण ब्रह्मण नहीं हो सकते. केवल चिन्ह मात्र धारण करने से जाती की निवृत्ति अथवा प्राप्ति नहीं हो सकती.
                                     न नापितो ब्रह्मनतम याति सूत्रादिधार्नात.
अर्थात नापित यज्ञोपवीत आदि धारण कर लेने से कदापि ब्राह्मण  नहीं हो सकता.

कलियुग में ब्राह्मण शरीर   जन्म से ही प्राप्त होता है,  तपस्या आदि से नहीं.
                            कलौ ब्रह्मंता याति वीर्यात्त्पश्चार्यादिना  नहीं.
जो मोह से, स्नेह  से अथवा हाथ से अग्रभोजी  ब्राह्मण को उच्छिस्ट भोजन कराता है, वह मूढ़ लालाभक्ष नामक नरक में गिरता है,
जो स्वयं हीन वर्ण होकर उत्तमवर्ण ब्राह्मण  को शिष्य बनाने की कुचेष्टा करता है, वह प्रलय पर्यंत मल भक्षण करता रहता है, और क्रम से शूकर गर्दभ आदि पाप योनिय  भोगकर चंडाल योनी को प्राप्त करता है,

उच्छिष्ट्भोजी पुरुष कुत्ते की योनी प्राप्त करता है - उच्छिष्ट भोजिनः श्वानः

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