समय की वेगवती धारा में सब कुछ बहा जा रहा है. द्रश्यमान प्रपंच में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो स्थिर हो. हमारे सामने संसार में कितने ही उत्थान-पतन और उथल-पुथल होते रहते है. जब हम किसी लुभावनी वस्तु में आसक्त हो जाते है या डरावनी वस्तु से द्वेष करने लगते है तब हमारा अन्तरंग राग-द्वेष के रंग में रंग जाता है. उसी के आवेश में हम अपने स्वरुप को और उसके अनुरूप स्थिति, भावना अभ्यास और धर्म को भूल जाते है तथा आमूल-चूल संसार के दलदल में निमग्न तथा संलग्न हो जाते है. वर्तमान स्थिति यह है की न हमें अपने स्वरुप का ज्ञान है, न पररूप का. न ह्रदय में सद्भावना है, न जीवन में सत्कर्म. जिसका अंग-अंग राग रंग और दुह्संग में रंग गया है उसके लिए अज्ञान निवर्तक तत्वज्ञान की तो चर्चा ही क्या है. जहा भगवद अर्चा नही वह ब्रह्म चर्चा भी शोभाहीन है.
देहावेश की निवृत्ति के लिए देहातिरिक्त आत्मा का ज्ञान आवश्यक है. वह देह नहीं देही है. पाप पुन्य का करता है. सुख-दुःख का भोक्ता है. जीवन का आदि-अंत यह शरीर ही नहीं है. इस शरीर के पूर्व भी जीवन था और पश्चात भी रहेगा. आकार, आयु, शक्ति, संकल्प, प्रज्ञा, सुख-दुःख आदि में तारतम्य भी स्पष्ट ही देखने में आता है. शून्य, विज्ञान, भौतिक द्रव्य, प्रकृति, परमाणु अथवा ब्रह्मरूप उपादानो में, चाहे वे एक हो अथवा अनेक हो, सद्रश हो अथवा विस्द्रश हो, संस्कार रूप बीज पूर्व्कर्मानुसार ही होते है. संस्कार रूप बीज के बिना परस्पर विलक्षण, विचित्र एवं विभिन्न जातियों तथा व्यक्तयो के शरीर की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती.
इसलिए देहातिरिक्त आत्मा को कर्ता, भोक्ता एवं
गमनागमनशील जानकार सुखदायक संस्कार उत्पन्न करने के लिए मनुष्य शरीर में धर्मनिष्ठ की नितांत आवश्यकता है. धर्मनिष्ठ में ही स्वभाव के परिवर्तन और निर्माण की शक्ति है और देहावेश की निवृत्ति भी धर्मनिष्ठ ही करती है.
धर्मनिष्ठां के साथ ही साथ भक्तिनिष्ठ का होना भी आवश्यक है क्योकि मनुष्य का ह्रदय अत्यंत संवेदनशील और भावुक है. वह तत्काल प्रिय, अप्रिय के प्रति क्रमशः राग द्वेष के वशीभूत होकर अपने ह्रदय में सद्भाव या दुर्भाव को स्थिर आश्रय दे देता है और दुःख भोगने लगता है. राग-द्वेष दोनों का ही अंतिम परिणाम जलन है इसलिए अपने ह्रदय में निरंतर लोकोत्तर चमत्कारकारी परमेश्वर का चिंतन करना चाहिए. इसी से लौकिक पारलौकिक विषयों के प्रति वैराग्य होता है. अल्प के प्रति वैराग्य हुए बिना अनंत के प्रति जिज्ञासा, लालसा या प्रगति संभव नहीं है. संसार की छोटी-छोटी वस्तुओ में लुभा जाने वाला पुरुष परमात्मा की प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता.
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