सरस्वती नदी के पश्चिम तट पर शम्याप्रास नाम का व्यासजी का आश्रम था. वह बद्री वृक्षों के समूह से मंडित था. वही व्यासजी ने आचमन कर मन को निग्रह किया, तब उन्हे माया और पुरुष का दर्शन हुआ.
यह माया ही समस्त अनर्थो की मूल है. अनर्थो की निवृत्ति भक्ति से होती है और भक्ति भगवत चरित्रों के श्रवण से होती है ऐसा विचारकर उन्होंने भगवत चरित्रों से परिपूर्ण भागवत संहिता की रचना की.
यस्यं वै श्रूयमाड़ायाम क्रश्ने परम्पूरुशे
भक्तिरुत्पद्यते पुंसः शोक्मोह्भयापहा
जिसके श्रवण मात्र से भगवान् में मनुष्यों की भक्ति होती है और शोक, मोह, भय आदि सब निवृत्ति हो जाते है. व्यासजी के पुत्र श्रीशुकदेवजी निवृत्ति मार्ग से निरत थे, ग्रंथो के अध्ययन और अध्यापन से उनका कोई सम्बन्ध न था. फिर भी भगवान् के गुणों से आकृष्ट होकर उन्होंने अपने पिताजी से इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया और परीक्षित को भी इसे सुनाया.
यदा म्रधे कौरव स्रंज्यानाम वीरेश्व्ठो वीर्गातिम गतेषु
व्रकोदाराविद्ध गदाभिमर्ष भाग्नोरूदंडे धृतराष्ट्र्पुत्रे
जब महाभारत संग्राम में कौरव और पांडवो की सेना के बड़े-बड़े वीर मारे गए एवं भीम के गदा प्रहार से दुर्योधन के उरूदंड भी टूट गए तब अश्वत्थामा ने दुर्योधन के संतोषार्थ द्रौपदी के सोये हुए पुत्रो का सर काट डाला. यह देखकर विलाप करती हुई द्रौपदी को अर्जुन ने समझाया की तू शोक न कर, मै अश्वत्थामा का सर काटकर लाता हूँ. ऐसा कहकर अर्जुन ने अश्वत्थामा का पीछा किया. अश्वत्थामा पीछा कर रहे अर्जुन को देखकर बहुत घबडाया और रथ पर चढ़कर बड़ी तेजी से भागा, जैसे रूद्र के भय से सूर्य भागे थे
जब अश्वत्थामा के घोड़े थक गए तब उसने अपने बचाव के लिए उपसंहार न जानते हुए भी अर्जुन पर ब्रह्मास्त छोड़ दिया. अर्जुन ने यह देखकर अपना भी ब्रहास्त्र छोड़ दिया. उन दोनों अस्त्रों के टकराने से महाप्रलय का सा द्रश्य उपस्थि हो गया चारो और हाहाकार मच गया. तब भगवन के आदेश से अर्जुन ने दोनों अस्त्रों को खीचकर शांत कर दिया और अश्वत्थामा को रस्सी से बांधकर अपने डेरे ले गए.
मार्ग में भगवान् ने अश्वत्थामा के अक्षम्य अपराध को देखते हुए उसका वध कर डालने को कहा किन्तु अर्जुन ने उसे गुरुपुत्र जानकार ऐसा नहीं किया. द्रौपदी ने जब पशुतुल्य रस्सी से बंधे अश्वत्थामा को देखा तब उसे दया आ गयी. वह उसे प्रणाम कर बोली
इसे छोड़ दो, यह गुरु पुत्र है. यह सर्वदा हमारे लिए वही पूज्य गुरु है, जिसकी कृपा से तुमने सारी धनुर्विद्या सीखी, सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया. पुत्र रूप में यह साक्षात् द्रोड़ाचार ही विद्यमान है. इसे मत मारो छोड़ दो, मै तो पुत्र शोक से रोती ही हूँ अब इसकी माता को मेरी तरह पुत्र शोक से न रुलाओ
द्रौपदी के इन वचनों का युधिशिथिर आदि सभी ने अनुमोदन किया किन्तु भीम को यह बात सहन न हुई. उन्होंने क्रुद्ध होकर कहा इस दुष्ट का तो बध करना ही श्रेयस्कर है.
यह कहकर वह स्वयं अश्वत्थामा को मारने चले उधर द्रौपदी बचाने चली. तब भगवान् ने दोनों को रोका और अर्जुन से कहा - अधम ब्राहमण भी बधयोग्य नहीं है किन्तु आततायी शस्त्रधारी बध योग्य है, यह दोनों बाते मैंने ही कही है, इनका यथायोग्य पालन करो और भी ऐसा करो जिससे द्रोपदी को सांत्वना देते हुए तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, वह असत्य न हो और जो भीमसेन को भी न अखरे. द्रौपदी को तथा मुझको भी प्रिय हो.
अर्जुन ने सहसा प्रभु का अभिप्राय जानकार अश्वत्थामा के केश सहित मडी खंग से काटकर निकाल ली और धक्का देकर उसे अपने शिविर से बाहर कर दिया.
शास्त्र में अधम ब्राहमण का यही बध कहा गया है, प्राणदंड नहीं. इस तरह सभी के वचनों की रक्षा हो गयी.
मुंडन कर देना, धन छीन लेना तथा स्थान से निकाल देना यही अधम ब्राह्मणों का वध कहा गया है. प्राणदंड नहीं. बाद में पुत्र शोक से व्याकुल पांडवो ने अपने मृत पुत्रो के दाहसंस्कार आदि पारलौकिक कर्म किये.