माता-पिता की आज्ञा का पालन यदि आराम से , सुख से, अपने लाभ के लिए होती है तो बहुत से लोग उसे धर्म समझकर करना चाहते है और करने के लिए तैयार रहते है. परन्तु इस धर्म के प्रति निष्ठां की परिपुष्टि तो तब होती है जब उसका पालन करने में हमें कष्ट मिले और उस कष्ट को सहकर भी हम अपने धर्म का पालन करे. कष्टसाध्य धर्म का पालन करने पर ही मनुष्य धर्मात्मा होता है.
श्रीरामचंद्र ने जो राज्य का परित्याग करके चौदह वर्षो तक वन में निवास किया, वन्य जीवन व्यतीत किया, इसी से पता चलता है की उनके ह्रदय में माता-पिता की आज्ञा के प्रति कितनी निष्ठां थी. जो ब्यक्ति धर्म पालन में कष्ट उठाने से हिचकता है, वह धर्मनिष्ठ नहीं होता. धर्म का पालन तभी होता है, जब हम अपने हाथ को वासना के अनुसार काम करने से रोके और आज्ञानुसार काम करने दे. अनुशासन सबसे बड़ी चीज है. हमारे पावो को आज्ञा के अनुसार चलना चाहिए, वासनानुसार नहीं चलना चाहिए. जो कार्य शासनानुसरी होता है, वही धर्म होता है, वासनानुसारी कार्य तो लम्पटता का रूप होता है. हमें यह देखते रहना चाहिए की हम अपने जीवन में जो मनोराज्य या मनोरथ करते है, वे वासनानुसार है अथवा वेद, शास्त्र, आचार्य और बड़ो की आज्ञा के अनुसार है.
राम की यही विशेषता है कि वे घोर कष्ट उठाकर भी अपने धर्म का पालन करते है. धर्म माने धारण करना - धरन्ति इति धर्मः. जो हमारे भीतर रहकर हमारी रक्षा करता है, पावो को बुरी जगह जाने नहीं देता, हाथो से बुरा काम करने नहीं देता, मुह से बुरी बात नहीं बोलने देता, इन्द्रियों को बुरे मार्ग पर नहीं चलने देता, वह धर्म है. जो शक्ति हमारे अंतःकरण में विराजमान है और हमारी इन्द्रियों तथा मन को पकड़कर वश में रखती है, उसी का नाम होता है धर्म.
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