तत्वज्ञ के जीवन में ब्रह्माकार वृत्ति निरंतर बनी रहती है. तत्वज्ञ पुरुष को यह अनुभव नहीं होता की अविद्या निवृत्ति हो गयी है. ऐसा तो तब होता जब अविद्या नाम की वस्तु पहले कोई सत्य होती और बाद में निवृत्त होती . तत्वज्ञ का अनुभव तो यह है की अविद्या कभी थी ही नहीं.
निरंतर अभ्यास करते रहने और वासनाओं का पूर्णतया नाश कर देने पर ही अनुभव की प्राप्ति होती है. केवल शस्त्र पढने से कुछ नहीं होता. वासना के रहते चित्त में शांति नहीं आ सकती. वासना रहित चित्त ही परम तत्व के चिंतन का अधिकारी होता है. निरंतर अभ्यास करते रहने से ही वासनाओं का निर्मूलन होता है और तत्व की उपलब्द्धि होती है. वासनाओं के उच्छेद के लिए विषयों से सर्वदा वैराग्य रखे और सर्वदा भाग्वादाकर वृत्ति रखे .
वैराग्य का फल बोध और बोध का फल उपरति.
दोनों में अंतर यही है की वैराग्य होने पर विषयों में ग्लानी होने के कारण उन्हें भोगा नहीं जाता. उपरति होने पर वस्तु सामने रहें पर भी उसे भोगने की प्रवृत्ति नहीं होती. इसके उपरांत उपरति का फल है आनंद और आनंद का फल है शांति.
राग-यदि किसी वस्तु से मन इस प्रकार फस जाय की किसी भी प्रकार का अपमान निरादर या दुःख होने पर भी न हटे तो मानना चाहिए की उसमे राग है.
द्वेष-यदि किसी वस्तु से मन ऐसा हट जाय की उसमे दोष ही दोष दिखाई दे कोई भी गुण न दीख पड़े तो मानना चाहिए की उसमे द्वेष है.
राग-द्वेष की उत्पत्ति गुण-दोष या निंदा-स्तुति के चिंतन से ही होती है. राग-द्वेष से मुक्ति, निंदा-स्तुति के न करने की प्रतिज्ञा से एवं पूर्ण ग्यानी या भक्त जो राग-द्वेष से मुक्त होते है, उनका ध्यान करने से राग-द्वेष छूट सकते है. राग-द्वेष की निवृत्ति केवल विवेक से नहीं होती. विवेक से तो राग-द्वेष वाला व्यक्ति उन्नति की सुनहली पगडंडी पर नहीं बढ़ सकता. हा, राग-द्वेष की निवृत्ति केवल विवेक से नहीं होती. विवेक से तो राग-द्वेष से छुटकारा पाने की कुंजी मिल जाती है. उसकी पूर्ण निवृत्ति होती है. भगवत्प्रेम और आत्मप्रेम से.
प्रतिष्ठा और गर्व माया मोह में भटकाएगा उससे क्या लाभ होने वाला है ?
जिह्वा का स्वाद ही सारे अनर्थो की जड़ है.
जीवन्मुक्ति क्या है ? जो जिस प्रकार अज्ञात भासा में तुम्हारी निंदा या स्तुति की जाय तो तुम्हारा चित्त तनिक भी डावाडोल नहीं होगा, उसी प्रकार यदि तुम्हारी परिचित भाषा में तुम्हारी निंदा या स्तुति की जाय तब भी तुम्हे क्षोभ न हो तो मानना चाहिए की तुम जीवन्मुक्त हो.
स्वामी अखंडा नन्द सरस्वतीजी महाराज के आनंद रास रत्नाकर से साभार
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