जब अनंत नारायण की नाभि से एक कमल निकला और उस कमल पर ब्रह्मा उत्पन्न हुए तब ब्रह्मा ने चारो ओर देखने का प्रयास किया. उनके चार मुह हो गए. उनको यह विचार हुआ की उनके सिवाय तो और कुछ है ही नहीं. फिर वह कौन है, जिससे मै प्रकट हुआ हूँ.
उन्होंने ढूढने का प्रयास किया लेकिन उनको अपना कारण न बाहर मिल और न भीतर मिला. भला अपने पिता का जन्म कोई कैसे जान सकता है ? ब्रह्माजी को प्रयास करने पर कुछ पता नहीं लगा.
इसके बाद ब्रह्मा जब अपनी उत्पाती का आधार जानने के लिए व्यग्र हो गए तब उन्हें यह आकाशवाणी सुनाई पड़ी की तप,तप,तप !
वर्णों में जो सोलहवे और इक्कीसवे अक्षर त तथा प है, वे दोनों उनको सुनाई पड़े. उन्होंने आलोडन करके देखा की जो व्यापक विश्व तत्व है, नारायण है, परमेश्वर है वह और कही नहीं, यही है. फिर ब्रह्माजी को भगवान का दर्शन वही हो गया. उनपर भगवान प्रसन्न हो गए और बोले की ब्रह्माजी, तुमने बहुत तप किया अब तुम्हारी जो इस्च्छा हो वह वर मुझसे मांग लो.
यहाँ देखो, अंतःकरण का आधिदैव है , इसमें चार प्रकार की वृत्तिया होती है. यदि आपको आधिदैव का साक्षात्कार करना हो तो पहले अध्यात्म का साक्षात्कार करना होता है. हमारे ह्रदय के भीतर जो चीजे है उनको तो हम देखते नहीं, बाहर की चीजो को देखने के लिए निकल पड़ते है. जिस चीज को आपने अपने घर में नहीं पहुचाना उसको बाहर जाकर कैसे पहचानेगे ?
पहचानिए, ब्रह्माजी का रंग लाल है. स्रष्टि के करता है, इसलिए उनमे राजस की प्रधानता है. फिर बिना ज्ञान के स्रष्टि नहीं हो सकती इसलिए ज्ञान विवेक का पक्षी हंस उनका वाहन है. चारो वेद उनके चारो मुख है. उनके अंतःकरण की वृत्तिया है संकल्परूप मन, विकल्परूप चित्त, निश्च्यरूप बुद्धि और अहमक्रिया रूप अहंकार. इन सबसे संपन्न होकर ब्रह्माजी स्रष्टि का निर्माण करते है.
जब भगवान ने ब्रह्माजी को दर्शन दिया तब उन पर प्रसन्न होकर उनसे हाथ मिलाया. ब्रह्माजी ने भगवान् को प्रणाम किया और बोले - महाराज मुझे तो तत्वविज्ञान चाहिए. इस पर भगवान ने उनको चतुह्श्लोकी भागवत का उपदेश किया, चार श्लोको में पूरा भागवत सुना दिया, उनमे प्रवेश करने के लिए शुद्ध बुद्धि चाहिए. बह्माजी ने जब तप किया तब उनको भगवान के दर्शन हुए और उन्होंने उनके उपदेश को समझा.
आप जो कुछ देखते या मानते है, उसको भगवान की द्रष्टि से मिलाईये और फिर देखिये की आपका देखना मानना भगवान की द्रष्टि से थी है या नहीं ? आप सोचिये की ईश्वर सब कुछ देख रहा है तब जैसा ईश्वर को दीखता है वह सच है या जैसा आपको दीखता है, वह सच है ?
आपकी इन छोटी-छोटी अक्षम आखो से तो फर्लांग-दो-फर्लांग की चीज भी ठीक-ठीक नहीं दिखाई देती, सूक्ष्म कड भी नहीं दिखाई पड़ते, फिर इन आखो से जो दिखाई देता है, उसी को सच मानकर आप उसमे क्यों फस जाते है ? पूर्णता की द्रष्टि से क्या सत्य होता है इस पर आपका ध्यान क्यों नहीं जाता ? अरे, जिसमे पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण और ऊपर-नीचे नहीं है, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनो नहीं है, उसका आदि किसी ने देखा है ? भविष्य का अंत किसी ने देखा है ? वर्तमान में ही तो जो बीतता जाता है उसका नाम भूत होता जाता है और जो आने वाला होता है उसका नाम भविष्य होता जाता है. और जो आने वाला होता है उसका नाम भविष्य होता है.
जहा मै है वहा काल के आदि अथवा अंत में आपकी बुद्धि नहीं पहुच सकती. इसी प्रकार देश के आदि अंत में आपकी बुद्धि नहीं पहुच सकती. इसलिए जब आप ईश्वर को द्रष्टि से देखेगे, इश्वर के साथ एक हो जायेगे, तदात्म्यापन्न हो जायेगे तभी इस स्रष्टि का स्वरुप समझ सकेगे, अभी तो आपका कोई है और कोई नहीं है कोई अपना है, कोई पराया है कोई मित्र है और कोई शत्रु है, कोई अच्छा है, कोई बुरा है, किन्तु जब आप ईश्वर की द्रष्टि से देखेगे तब यह जान सकेगे की इस स्रष्टि का रहस्य क्या है ?
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