भगवान् की माया से यह श्रष्टि उत्पन्न हुई है. माया माने लोक व्यवहार में बोला जानेवाला जादू खेल. जहा जो चीज न हो उसको वहा दिखा देना, जहा जो चीज हो उसको ढक देना, देखनेवाले की आख बांध देना यही जादू है. इसी तरह जो नहीं है वह दिखाई पड़ने लगे और जो है उसका दिखना बंद हो जाय इसी का नाम माया होता है.
माया के बिना अद्वितीय अनंत परमात्मा में यह श्रष्टि दिखाई नहीं पड़ सकती . उपासक लोग माया को ब्रह्मज्ञान की अचिन्त्य शक्ति कहते है और वेदांती लोग देहात्म भ्रम के कारण श्रष्टि की. संगती लगाने के लिए भगवान में माया को अध्यारोपित मानते है लेकिन चाहे अध्यारोपित मानो, चाहे भगवान् की अचिन्त्य शक्ति मानो यह जो समग्र श्रष्टि पैदा हुई है, भगवान् की माया ही है, भगवान् के जादू का खेल ही है.
जो अनित्यवस्तु होती है, उसी का जन्म होता है. यह श्रष्टि आने जानेवाली है. पैदा होने के कारण मरने वाली है और परिवर्तनशील है. किन्तु इसमें जो जीव है वह नित्य है.
दुनिया में ऐसा कोई माई का लाल नहीं है जो यह अनुभव कर ले की मै नहीं हूँ. ऐसा कोई व्यक्ति न हुआ है न है और न आगे होने वाला है. यह भौतिक विज्ञानं नहीं है की इसमें न जाने क्या-क्या आविष्कार होने की सम्भावना है. यह तो अनुभवका क्षेत्र है. यहाँ सर्वथा सुनिश्चित है की कोई भी मै नहीं हूँ - ऐसा अनुभव नहीं कर सकता. कोई भी वस्तु चाहे वह ज्ञान हो, चाहे अज्ञान हो, ज्ञान ही विदित होती है. ज्ञान बिना सुषुप्ति भी प्रकाशित नहीं होती, समाधी भी प्रकाशित नहीं होती, प्रलय भी प्रकाशित नहीं होता. यहाँ तक की ज्ञान का लोप भी ज्ञान से ही मालूम पड़ता है.
यह एक बात पर आप ध्यान दीजिये. पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण की जो चारो दिशाए है, कहा से पैदा होती है ? क्या आप बता सकते है की पूर्व से पूर्व, पश्चिम से पश्चिम कहा से शुरू हुआ है ? इसी तरह पूर्व-पश्चिम का कहा अंत होता है, कोई बता नहीं सकता है. ऊपर और नीचे कहा-कहा से प्रारंभ होता है, किसी को मालूम है ? उसका एक मात्र उत्तर यही है की किसी को भी पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण और ऊपर-नीचे की दिशाओं के आदि-अंत का पता नहीं है.
लेकिन अध्यात्म इसका उत्तर देता है. वह कहता है की जहा आपका मै है, वही से पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण और ऊपर-नीचे की दिशाए शुरू होती है. यदि आप इनको दूसरी जगह ढूढने जायेगे तो ये आपको कही भी नहीं मिलेगी. केवल आपको अज्ञान मिलेगा, और आप उसके अन्धकार में डूब जायेगे. इसलिए आपको पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, ऊपर-नीचे की दिशाओं तथा इतिहास का आदि ढूढने के लिए कही बाहर जाने की जरूरत नहीं है. आपका जहा मै है, वही सच्चा आदि है, वही अनादी बैठा हुआ है और वही उसी ज्ञानस्वरूप मै में परमात्मा है. फिर आपको अज्ञान में भटकने की क्या जरूरत है ?
यदि आप कहे की श्रष्टि की उत्पत्ति मै से कैसे होती है. क्योकि मै तो साक्षी है, ज्ञानस्वरूप है, उसके द्वारा किस प्रकार श्रष्टि होगी, तो इसका उत्तर है की श्रष्टि इस प्रकार नहीं होती माया से श्रष्टि होती है. जबतक श्रष्टि दिखाई पड़ती है, उसके कारण ही कल्पना करनी पड़ती है.
भागवत में श्रष्टि की उत्पत्ति का निरूपण क्रम से किया गया है और फिर बताया गया है की भगवान् का जन्म कैसे होता है ? जो अनित्य है, उसी की उत्पत्ति होती है. जो नित्य और परिच्छिन्न जीव है, उसका अनित्य से समागम होता है तथा जो नित्य अपरिच्छिन्न परमात्मा है, उसमे सारी की सारी श्रष्टि माया से आविर्भूत होती है. इस प्रकार उत्पत्ति के प्रसंग का निरूपण द्वितीय स्कंध के पांच, छेह और सात इन तीन अध्यायों में किया गया है. पहले माया से जगत की उत्पत्ति, फिर जीव का समागम और तत्पश्चात भगवान् के अवतार का वर्णन.
श्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी महाराज की भाग्वाताम्रत से साभार
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