7/31/2010

भगवन शंकर द्वारा वर्णित वह अमरकथा श्रीमद्भागवत ही है,

एक समय पार्वतीजी ने भगवन शिव से निवेदन किया-भगवन ! मेरा आपसे कभी वियोग न हो और मुझे सर्वदा आत्मज्ञान बना रहे, कृपया इसका कोई उपाय बताये. इस पर शिवजी ने कहा-प्रिये ! प्रश्न  तो तुमने बहुत अच्छा किया, पर पहले बाहर  जाकर देख आओ की हमारी बाते कोई दूसरा सुन तो नहीं रहा है. पार्वती ने बहार जाकर चतुर्दिक द्रष्टि डाली किन्तु उन्हें शुक के एक विगलित अंडे के सिवा वहा अन्य कोई जीव दिखाई न दिया. ऐसी स्थिति में पार्वती ने तुरंत ही लौटकर भगवान शिवजी से निवेदन किया नाथ! बहार कोई नहीं है. तब भगवान शिव ने सानंद ध्यानस्थ मुद्रा में अमरकथा का अमृत प्रवाह आरम्भ किया  और पार्वतीजी बीच-बीच हुंकारी भारती रही. भगवन शंकर द्वारा वर्णित वह अमरकथा श्रीमद्भागवत ही है,
कथा का क्रम  प्रथम स्कंध से दशम स्कंध पर्यंत पहुचने तक पारवती बराबर हुंकारी भारती रही पर ग्यारहवे स्कंध के आरम्भ में उन्हें निद्रा आ गई और इस बीच उस विगलित अंडे से बहार हिक्ला हुआ शुक्षावक हुंकारी भरता गया.  बारहवे स्कंध की समाप्ति पर पार्वतीजी की जब निद्रा भंग हुई तब उन्होंने शिवजी से कहा-भगवन! कृष्ण  उद्धव संबाद तो मै नहीं सुन सकी. देव ! क्षमा कीजिये, बीच में मै निद्रा ग्रस्त हो गई थी. इस पर शिवजी ने पूछा - तब हुंकारी कौन भर रहा था ? यह कहकर वे वास्तविकता जानने के लिए स्वयं ही बाहर आये और वहा उन्होंने सुग्गे का एक सुन्दर बच्चा बैठा देखा.
शुक-शावक को देखते ही भगवान शिव ने व्यग्र होकर पार्वतीजी   से प्रश्न किया-आखिर यह यहाँ कैसे ? क्या तुमने इसे देखा नहीं ? पार्वतीजी ने सुविनीत भाव से म्रदुल स्वर में उत्तर दिया - देव! यह तो यहाँ विगलित अंडे के रूप मे पड़ा था. मालूम होता है, यह भागवत रुपी  अमृत पान से जीवित हो गया. आप इस पर क्रोध न करे.
किन्तु शिवजी इतनेसे ही शांत नहिः हुए. अमरकथा का इस प्रकार फूट जाना उनकी द्रष्टि में कोई साधारण घटना न थी, अतः तुरंत वे बड़े वेगसे उस शुक  शावक को पकड़ने की इच्छा से उस पर झपटे. शुक-शावक भी शिवजी की यह मुद्रा देखकर भगा और जम्हाई लेती हुई व्यासजी की पत्नी पिंगला के  मुख में प्रविष्ट हो गया. इधर उसे न पाकर निराश हो शंकरजी अपने  आश्रम में लौट  आये. वही शुक शावक श्रीव्यासजी के पुत्र शुकदेव के रूप में उत्पन्न हुआ.
श्री शुकदेवजी के प्रसंग में अन्य पुरानो की कथा है की वे गोलोक में श्रीराधाजी के लीलाशुक थे. भगवन श्रीकृष्ण के अवतरण काल में श्रीराधाजी ने स्वयं भी लीला विग्रह धारण के समय अपने इस प्रिय शुक से साथ चलने को कहा था. वही शुक श्री राधाजी के वियोग के कारण उक्त विगलित अंडे के रूप में भगवन श्रीशंकर के आश्रम  के निकट आ पड़ा था जहा उसे इस अमृतमयी कथा का अनुपम रसास्वाद स्वयं भगवन शिव के श्रीमुख से प्राप्त हुआ.
श्रीव्यासजी की पत्नी के मुख से उदर में प्रविष्ट हुआ वह शुक बारह वर्षों तक वही स्थित रह गया. इस दशा पर व्यग्र होकर एक दिन व्यासजी कह  बैठे-बेटा बहार क्यों नहीं आते ? देखो तो इस स्थिति में तुम्हारी माता को कितना अधिक  कष्ट हो रहा है. शुकदेवजी ने कहा-पिताजी, मेरे उदर में रहने के कारण माता को कुछ कष्ट नहीं हो रहा है, मेरे बहार आने पर माया मुझ पर आक्रमण करेगी, तब मुझे कष्ट ही नहीं, कष्ट राशी झेलनी पड़ेगी इसलिए  मेरा बाहर न आना ही अच्छा है.
ऐसी मर्म मई  वाणी सुनकर व्यासदेव चकित  हो उठे. उन्होंने प्रश्न किया - तुम्ही बतलाओ, किस दशा में तुम्हारा बाहर आना संभव हो सकता है ? इस पर शुक ने कहा- पिताजी, द्वारकाधीश भगवन श्रीकृष का यदि यह आश्वासन मिले की माया का आक्रमण मुझपर न होगा, तभी में इस प्रथ्वी पर  आ सकता हूँ, अन्यथा नहीं. जब श्रीव्यास देव ने भगवान श्रीकृष्ण से शुक्पर माया का आक्रमण न होने कात्रिवाचिक आशीर्वाद  सुलभ करा दिया तब श्रीशुकदेवजी प्रथ्वी पर अवतीर्ण हुए और आशिर्वाद्दाता भगवान श्रीकृष्ण एवं माता पिता के श्रीचरणों में सादर प्रणाम कर वन की ओर चल पड़े. व्यासजी पुत्र्वात्सल्य से उनके पीछे-पीछे हे पुत्र! हे पुत्र! कहते उन्हें बुलाते रहे -
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव
किन्तु शुकदेवजी लौटे  नहीं. एक पर्वत की कन्दरा में जाकर समाधिस्थ हो गए. व्यासजी विरह से व्याकुल होकर पुत्र के संस्कार को जाग्रत करने वाले भागवत के भावपूर्ण श्लोको का बार-बार उच्चारण करने लगे. उन श्लोको में प्रथम श्लोको में प्रथम श्लोक यह था-
अहो बाकि यम स्तान्काल्कूतम    जिन्घान्स्या    पायायादाप्य्साध्वी
लेभे गतिम् धत्र्युचितम तातोंयम कम व दयालुम शरणम वृजेम
आश्चर्य ! भगवान् की दयालुता का मै कहा तक वर्णन करू. दुष्ट राक्षसी पूतना ने मरने की इच्छा से अपने स्तनों में कालकूट विष भरकर भगवान को पिलाया किन्तु भगवन ने उसे माता की सी उचित गति अपना लोक  दे दिया. विष देने वाले को भी जो अमृत प्रदान कर, ऐसा दयालु दूसरा देवता कौन है, जिसकी मै शरण लू.
यह श्लोक सुनते ही शुकदेवजी की समाधी टूट गई. वह विह्वल होकर कन्दरा से बहार आये और उन्मत्त की तरह उस श्लोक की ध्वनि का अनुसरण कर व्यासजी के समीप जा पहुचे. वहा उनके चरणों पर गिरकर आंसू बहाते हुए बोले- बेटा ! आश्रम पर चलो, वहा हम तुम्हे ऐसे ही बहुत से श्लोक सुनायेगे. शुकदेवजी भगवन के गुणों से आकृष्ट होकर उनके साथ आश्रम पर वहा उन्होंने व्यासजी के श्री मुख से सम्पूर्ण भागवत का अध्ययन किया.

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