शुकदेवजी ने यह कथा परीक्षित को सुनाई थी. यह कथा किस स्थान में, किस कारण और किस युग में आरम्भ हुई ? किससे प्रेरति होकर व्यासजी ने यह संहिता बनायीं ?
व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी समदर्शी और योगी थे. उनकी कही आसक्ति और भेद्द्रष्टि नहीं थी. वह उत्पन्न होते ही सब कुछ त्यागकर वन में जा रहे थे. मार्ग में एक सरोवर था . उसमे अप्सराये नग्न होकर जलविहार कर रही थी. शुकदेव को देखकर उन अप्सराओ को न तो लज्जा हुई और न उन्होंने वस्त्र धारण किये . शुकदेवजी के हे पुत्र ! हे पुत्र! हे पुत्र ! कहते जब वृद्ध अनग्न व्यासजी आये, तब उन स्त्रियों को बड़ी लज्जा हुई. जल से निकलकर उन्होंने तुरंत अपने-अपने वस्त्र पहन लिए. यह देखकर व्यासजी को बड़ा आश्चर्य हुआ. उन्होंने इसका कारण अप्सराओ से पूछा , तब वे बोली-
भगवन आपकी द्रष्टि में स्त्री-पुरुष का भेद है. किन्तु आपके पुत्र की पवित्र द्रष्टि में वह भेद नहीं है, व्यासजी यह सुनकर चकित हो मौन हो गए.
ऐसे निर्लिप्त अनासक्त, ज्ञानी शुकदेवजी के साथ परीक्षित का संवाद कैसे हुआ ? जो उन्मत्त और मूक के सामान अवधूत वेश में हस्तिनापुर के आस-पास इधर-उधर विचर करते थे. उन्हें लोगो ने कैसे पहचाना इसके अतिरिक्त जब वह घूमते-फिरते कभी किसी गृहस्थ के यहाँ चले जाते, तो गोदोहन काल तक ही ठहरते थे, अधिक नहीं. तब परीक्षित को सात दिनों तक उन्होंने कथा कैसे सुनाई ? हमारे इस संदेह को कृपया आप निवृत्त करे.
शुकदेव सा वक्ता होना कठिन है और श्रोता परीक्षित सा होना भी कठिन है, क्योंकि दोनों के जन्म और कर्म आश्चर्यमय ही है. महाराज परीक्षित ने किस कारण राज्य का परित्याग किया ? अन्न-जल का परित्याग कर वे गंगातट पर क्यों गए ? और वही उन्होंने प्राणों का परित्याग भी क्यों किया ? आप हमारे इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने की कृपा करे.
व्यासजी द्वापर में महर्षि पराशर से उत्पन्न हुए. वह एक दिन सरस्वती नदी के तट पर आचमन कर बैठे थे. सूर्य का उदय हो रहा था, इसी समय ब्यासजी के मन में विचार आया की आगे कलियुग आनेवाला है. इसमें मनुष्य अल्पायु, दुर्बुद्धि, अश्रद्धालु और नास्तिक होगे. दिव्य चक्षु से यह सब देखकर समस्त वर्ण और आश्रमों के हित का विचार कर उन्होंने एक वेद को चार भागो में विभक्त किया और अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को उन्हें पढ़ा दिया. उन्ही की कृपा से मेरे पिता रोमहर्षण इतिहास पुराण के ज्ञाता हुए. स्त्री, शूद्र आदि के कल्यार्थ उन्होंने महाभारत की रचना की. यह सब करने पर भी प्राणियों के कल्याणार्थ सर्वदा तत्पर व्यासजी के ह्रदय में संतोष नहीं हुआ. उन्होंने विचार किया की मैंने दृढ संकल्प से वेद, गुरु और अग्नि की शुश्रूषा करते हुए सदा उनका आदर और आज्ञापालन किया है. फिर भी खेद है की मेरी आत्मा में संतोष नहीं हुआ. इसका कारण क्या है ?
अगले अंक में शुकदेव जी की जन्म कथा पढ़े
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