राजा परीक्षित वन से लौटकर जब अपने भवन में आये तब उनके मन में बड़ा पश्चाताप हुआ और विचार आया की मैंने दुर्जनों की भाति बड़ा ही नीच कर्म किया जो निरपराध ऋषि के गले में मृत सर्प डाल दिया. हाय ! मेरी क्या गति होगी ? मुझे शीघ्र ही ऐसा दंड मिले जिससे इस पाप का प्रायश्चित हो जाय जिससे फिर गौ, ब्रह्मण तथा देवताओं के प्रति मेरी वैसी पापमती कभी न हो. उस तेजस्वी ऋषि बालक की क्रोधाग्नि आज ही मेरे सम्रद्ध राज्य तथा सेनासहित कोष को भस्म कर दे इससे मेरे नीच कर्म का समुचित प्रायश्चित हो जायगा और मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी. परीक्षित ऐसा सोच ही रहे थे की शमीक मुनि के गौरवमुख नामक शिष्य ने आकर राजा को श्रंगी के शाप का समाचार सुनाया. उसे सुनकर उनके मन में किसी प्रकार की अशांति नहीं हुई. प्रत्युत इसे विरक्ति का कारण मानकर उन्होंने राज्य का सम्पूर्ण भार अपने पुत्र जन्मेजय को सौप दिया और स्वयम सब कुछ त्याग कर भगवती श्रीगंगाजी के तट पर चले गए. वहा अन्न, जल का त्याग कर कुशासन पर बैठ भगवान् के श्रीचरणों का ध्यान करने लगे. उसी समय अत्री, वसिष्ठ, भ्रगु, अंगिरा, व्यास, नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि, महर्षि लोक को पवित्र करते हुए अपने-अपने शिष्यों सहित राजा के कल्याण के लिए वहा आ पहुचे.
राजा ने सब रिशित्यो को सर झुककर प्रणाम किया और अर्ध्य, पाद्य आदि से उनका विधिवत पूजन किया. तत्पश्चात हाथ जोड़कर अपना अभीष्ट निवेदन किया. राजा ने कहा-हे मुनिव्रंद! आज मै धन्य हो गया, जो आप लोगो ने मुझपर कृपा की. शमीक मुनि के पुत्र का शाप भी मेरे लिए वरदान हो गया. मै आप लोगो की पुन्य सन्निधि में भगवती श्रीगंगाजी की गोद में बैठा हुआ हूँ. तक्षक आकर मुझे डसे इसकी मुझे चिंता नहीं. आप मुझे भगवान् का गुडानुवाद सुनाये. यही मेरी आप महानुभावो से विनम्र प्रार्थना है. मुझपर आप ऐसी अनुकम्पा करे की मै जिस योनी में जाऊ उनमे भगवान् और उनके भक्तो में मेरा अनुराग सदा बना रहे. राजा के ऐसा कहने पर आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी दुन्दुभिया बजने लगी. उपस्थित महर्षियों ने राजा की प्रशंसा करते हुए कहा - हे राजन ! तुम धन्य हो, जो शरीर त्यागकर भगवान् की शरण में आ गए. जब तक तुम शरीर त्याग कर भगवान् के लोक को नहीं जाते तब तक हम लोग भी यही आप के समीप रहेगे यह सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई. राजा ने हाथ जोड़ कर विनीत भाव से पूछा - हे मुनिव्रंद ! कृपा कर आप यह बताये की म्रियमाड़ पुरुष को क्या करना चाहिए ?
इस प्रश्न पर मुनियों में यग्य, योग, जप, तप, दान को प्रथक-प्रथक साधन मानकर विवाद चल पड़ा और कोई निर्णय न हो सका.
उसी समय व्यासजी के पुत्र श्रीशुकदेवजी प्रथवी पर भ्रमण करते हुए दैवयोग से सहसा वहा आ पहुचे. उनकी सोलह वर्ष की अवस्था थी. अंग प्रत्यंग अत्यंत सुन्दर थे. मधुर हास्य से और स्नेहभरी चितवन से आकृष्ट होकर बहुत से स्त्रिया और बालक उनके पीछे हो लिए. उनका अवधूत वेश देखकर सभा में स्थित मुनिव्रंद उठकर खड़े हो गए. राजा ने उनको बैठने के लिए एक सिंहासन दिया और सर झुकाकर प्रणाम किया और विधिवत उनका पूजन किया. बाद में राजा ने कहा - हे भगवन ! आज मेरा कुल पवित्र हो गया, जो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ. मालूम पड़ता है, भगवान् श्रीकृष्ण ने ही कृपाकर अप को यहाँ भेजा है. अन्यथा म्रियमाड़ पुरुष के लिए आप लोगो का दर्शनदुर्लभ है.
हे मुनियों, आप योगियों के भी गुरु है, कृपया यह बतलाईये की म्रियमाड़ पुरुषो को क्या सुनना चाहिए जिससे उसकी मुक्ति हो ? क्या करना चाचिए ? क्या स्मरण करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ?
राजा के इस प्रकार प्रश्न करने पर शुकदेवजी ने बड़ी मधुर वाड़ी में म्रियमाड़ पुरुष के कर्तव्यो को कहना प्रारभ किया.
शेष अगले अंक में पढ़े ...(क्रमशः)
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