वाल्मीकि जी महाराज के जीवन के सम्बन्ध में आध्यात्म रामायण, पद्मं पुराण, विष्णु पुराण , आदि में तरह-तरह की कथाये आती है. अद्भुत बात यह है की उनका पूर्ण जीवन उत्तम कोटी का नहीं बताया गया है. आध्यात्म रामायण में बताया गया है -
ब्रह्मसूत्र के शारीरिक भाष्य में शूद्र शब्द की व्याख्या ऐसे की गयी है - शुचा अभिदुद्रूवे ईति शूद्रः - जो बात-बात में स्वयं दुखी हो जाय और दूसरो को सुखी करे, रुलाये, उसका नाम शूद्र है.
बाल्मीकी जी कहते है की मै पहले ईसी तरह के काम किया करता था. एक दिन मेरे सामने से सप्तर्षि निकले. मन में आया की उनके पास जो कमंडल है, दंड है, वस्त्र है, उन सबको छीन लू और उनसे प्राप्त द्रव्य को अपने कुटुंब के पालन पोषण में लगाऊ
एक पुराण में तो यह लिखा है की वाल्मीकि जी को सप्तर्षि मिले और दुसरे पुराण में लिखा ही की केवल नारदजी मिले.
जो भी हो, जब वाल्मीकिजी कमानल आदि को छीनने के लिए सप्तर्षियो अथवा नारदजी के पास पहुचे तब उन्होंने उनसे पूछा की तुम जो यह काम करने जा रहे हो, इसके फलभागी तुम्हारे घरवाले होगे या नहीं?
जानते हो की पाप का फल क्या होता है? केवल दुःख होता है. यदि तुम हमारा सामान छीनकर हमें दुःख दोगे तो तुमको भी दुःख होगा. इसलिए पहले यह देख लो की तुम जो पाप कर रहे हो और जिसके फलस्वरूप तुम्हे दुःख मिलने वाला है, उसमे तुम्हारे घरवाले हिस्सेदार होगे या नहीं?
वाल्मीकि ने कहा की मुझे तो यह सब मालूम नहीं है. मै घरवालो से पूछकर जबाब दे सकता हूँ.. लेकिन मै यह बात पूछने घर जाऊ और तुम ईतने में भाग जाओ तो क्या होगा?
इस पर सातो ने कहा की तुमको जिसने संतोष हो वह कर लो लेकिन घर जाकर पूछ जरूर आओ.
वाल्मीकिजी ने उनको पेड़ से बाढ़ दिया. वे खुशी से बांध गए और बधे-बधे भगवान् का स्मरण करने लगे.
वाल्मीकिजी ने अपने घर जाकर अपनी पत्नी, पिता-माता और बंधू=बांधव सबसे पूछा की मै चोरी डकैती, बेईमानी, छल-कपट तथा दूसरो को दुःख पहुचाकर धन संपत्ति ले आता हूँ उससे तुम लोगो का पालन पोषण होता हैलेकिन मुझे इस पाप कर्म का जो फल मिलेगा उसमे तुम लोग हिस्सेदार बनोगे या नहीं?
घरवालो ने एक स्वर में उत्तर दिया की-नहीं. तुम घर के मालिक हो. तुम्हारा कर्तव्य है की हमारा पालन पोषण करो. तूम कर्तव्य के अनुसार ही हमारे पालन-पोषण के लिए धन कमाकर ले आते हो. लेकिन हम यह नहीं जानते की तुम कहा से कैसे लाते हो. इसलिए यदि तुम्हारे कर्तव्य पालन का फल दुःख है तो हम उसको भोगने में हिस्सेदारी नहीं होगे.
यह सुनकर बाल्मीकी जी ने बड़े ग्लानी हुई. वे तुरंत सप्तर्षियो के पास पहुचे और उनको बंधन से मुक्त करके बोले की घरवाले तो दुःख में हिस्सेदार नहीं होगे.
इसके बाद सप्तर्षियो ने बाल्मीकी को समझाया की देखो दूसरो को तकलीफ पहुचकर धन बटोरना पाप है. फिर जब उस पाप में तुम्हारे परिवार के लोग ही सम्मिलित नहीं है तब तुम केवल अपने लिए दुःख की स्रष्टि क्यों कर रहे है?
अब वाल्मीकि सप्तर्षियो के सरनागत हो गए. उन्होंने उनको राम-राम जपने का उपदेश दिया लेकिन वाल्मिकी जी की स्थित ऐसी थी की उनके मुह से राम-राम निकले ही नहीं.
इस पर ऋषियों ने कहा अच्छा तुम सीधे राम-राम नहीं जप सकते तो मरा- मरा जपो क्योकि मारा मारा जपने से भी राम राम क उच्चारण हो जाएगा. इसी आधार पर तुलसीदासजी ने कहा है-
वाल्मीकिजी मारा-मारा जपने लगे और ऐसी तपस्या में सलग्न हुए की ब्रह्म के सामान हो गए. इसलिए वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ में ही उनके लिए तपस्वी शब्द का प्रयोग किया गया है.
अहम् पूरा किरातेशु किरातैह सह वर्धितः
जन्म्मात्र द्विज्त्वं में शूद्रचार्रतः सदा.
इसमें बाल्मीकी जी स्वयं कहते है की पहले मै जंगल में रहता था. जंगली लोगो के साथ ही मुझे पढने सीखने का अवसर मिला. वहा मैंने बुरे-बुरे चरित्र किये. मै शूद्राचार परायण हो गया.ब्रह्मसूत्र के शारीरिक भाष्य में शूद्र शब्द की व्याख्या ऐसे की गयी है - शुचा अभिदुद्रूवे ईति शूद्रः - जो बात-बात में स्वयं दुखी हो जाय और दूसरो को सुखी करे, रुलाये, उसका नाम शूद्र है.
बाल्मीकी जी कहते है की मै पहले ईसी तरह के काम किया करता था. एक दिन मेरे सामने से सप्तर्षि निकले. मन में आया की उनके पास जो कमंडल है, दंड है, वस्त्र है, उन सबको छीन लू और उनसे प्राप्त द्रव्य को अपने कुटुंब के पालन पोषण में लगाऊ
एक पुराण में तो यह लिखा है की वाल्मीकि जी को सप्तर्षि मिले और दुसरे पुराण में लिखा ही की केवल नारदजी मिले.
जो भी हो, जब वाल्मीकिजी कमानल आदि को छीनने के लिए सप्तर्षियो अथवा नारदजी के पास पहुचे तब उन्होंने उनसे पूछा की तुम जो यह काम करने जा रहे हो, इसके फलभागी तुम्हारे घरवाले होगे या नहीं?
जानते हो की पाप का फल क्या होता है? केवल दुःख होता है. यदि तुम हमारा सामान छीनकर हमें दुःख दोगे तो तुमको भी दुःख होगा. इसलिए पहले यह देख लो की तुम जो पाप कर रहे हो और जिसके फलस्वरूप तुम्हे दुःख मिलने वाला है, उसमे तुम्हारे घरवाले हिस्सेदार होगे या नहीं?
वाल्मीकि ने कहा की मुझे तो यह सब मालूम नहीं है. मै घरवालो से पूछकर जबाब दे सकता हूँ.. लेकिन मै यह बात पूछने घर जाऊ और तुम ईतने में भाग जाओ तो क्या होगा?
इस पर सातो ने कहा की तुमको जिसने संतोष हो वह कर लो लेकिन घर जाकर पूछ जरूर आओ.
वाल्मीकिजी ने उनको पेड़ से बाढ़ दिया. वे खुशी से बांध गए और बधे-बधे भगवान् का स्मरण करने लगे.
वाल्मीकिजी ने अपने घर जाकर अपनी पत्नी, पिता-माता और बंधू=बांधव सबसे पूछा की मै चोरी डकैती, बेईमानी, छल-कपट तथा दूसरो को दुःख पहुचाकर धन संपत्ति ले आता हूँ उससे तुम लोगो का पालन पोषण होता हैलेकिन मुझे इस पाप कर्म का जो फल मिलेगा उसमे तुम लोग हिस्सेदार बनोगे या नहीं?
घरवालो ने एक स्वर में उत्तर दिया की-नहीं. तुम घर के मालिक हो. तुम्हारा कर्तव्य है की हमारा पालन पोषण करो. तूम कर्तव्य के अनुसार ही हमारे पालन-पोषण के लिए धन कमाकर ले आते हो. लेकिन हम यह नहीं जानते की तुम कहा से कैसे लाते हो. इसलिए यदि तुम्हारे कर्तव्य पालन का फल दुःख है तो हम उसको भोगने में हिस्सेदारी नहीं होगे.
यह सुनकर बाल्मीकी जी ने बड़े ग्लानी हुई. वे तुरंत सप्तर्षियो के पास पहुचे और उनको बंधन से मुक्त करके बोले की घरवाले तो दुःख में हिस्सेदार नहीं होगे.
इसके बाद सप्तर्षियो ने बाल्मीकी को समझाया की देखो दूसरो को तकलीफ पहुचकर धन बटोरना पाप है. फिर जब उस पाप में तुम्हारे परिवार के लोग ही सम्मिलित नहीं है तब तुम केवल अपने लिए दुःख की स्रष्टि क्यों कर रहे है?
अब वाल्मीकि सप्तर्षियो के सरनागत हो गए. उन्होंने उनको राम-राम जपने का उपदेश दिया लेकिन वाल्मिकी जी की स्थित ऐसी थी की उनके मुह से राम-राम निकले ही नहीं.
इस पर ऋषियों ने कहा अच्छा तुम सीधे राम-राम नहीं जप सकते तो मरा- मरा जपो क्योकि मारा मारा जपने से भी राम राम क उच्चारण हो जाएगा. इसी आधार पर तुलसीदासजी ने कहा है-
उलटा नाम जपत जगा जाना
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.
वाल्मीकिजी मारा-मारा जपने लगे और ऐसी तपस्या में सलग्न हुए की ब्रह्म के सामान हो गए. इसलिए वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ में ही उनके लिए तपस्वी शब्द का प्रयोग किया गया है.
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