मुस्लिम भक्तो की एक टोली मक्का जा रही थी. शेख सादी उन दिनों बच्चे थे. मक्का जानेवाले दल में अपने पिता के साथ वे भी गए.
तीर्थयात्रियो ने खुदा की बंदगी के लिए कुछ नियम बना रखे थे. एक नियम यह भी था की आधी रात को उठकर प्रार्थना की जाय. एक दिन रात्री में प्रार्थना करने के लिए शेख सादी और उनके पिता ही उठे. दल के और लोग यात्रा से इतने थक गए थे की वे सोते ही रहे.
पिता और पुत्र ने प्राथना की. प्रार्थना संपन्न होने पर जब दोनों सोने लगे तब सादी से न रहा गया. आखिर बच्चे ही तो थे. वे बोले पिताजी देखिये केवल हम दोनों ने ही प्रार्थना की है. दल के ये लोग कितने आलसी है, न उठते है न प्रार्थना करते है.
बालक के ये वाचन उस सरलचित्त और धर्मनिष्ठ पिता के ह्रदय में तीर की भाती चुभ गए; उन्होंने सादी को सावधान करते हुए कहा मेरे सादी तू भी प्रार्थना के लिए न उठता तो अच्छा था. उठकर खुदा की बंदगी की इससे दूसरो पर क्या अहसान किया? प्रार्थना के लिए उठकर दूसरो के दोष देखने तथा उसका बखान करने से तो न उठना ही श्रेयष्कर था.
सादी को अपनी भूल समझ में आ गयी उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर पिता से अपनी भूल के लिए क्षमा मागी. पिता ने फिर कहा बेटा परदोष दर्शन ऐसा भीषण पाप है जिसको खुदा ही क्षमा कर सकते है. तुम खुदा से ही अपने ह्रदय की शुद्धि के लिए प्रार्थना करो.
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