अद्भुत है भागवत का दर्शन. यह किसी एक जाती या राष्ट्र की संपत्ति नहीं है, भगवान के जितने भी बालक है, बच्चे है, उन सबके लिए श्रीमद भागवत है. भागवत में वृक्ष भी भक्त है, पक्षी भी भक्त है, लताये भी भक्त है, जल में कमल खिलते है और नदियों का प्रवाह रुक जाता है. भगवान् की भक्ति में यहाँ की सारी श्रष्टि ओतप्रोत है.
बुरा देखने से बुरी वस्तु अपने ह्रदय में आजाती है और उससे अपना ह्रदय गन्दा हो जाता है. इसलिए तत्व का न करके
अन्वय-व्यतिरेक द्वारा यह निश्चित करना चाहिए की परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है.
जन्म भी वही, मरण भी वही, रोग भी वही, आरोग्य भी वही, वियोग भी वही, संयोग भी वही उसके अतिरिक्त दूसरी कोई बस्तु है ही नहीं.
आपके ह्रदय में भक्ति होनी चाहिए. आप अकाम है की सकाम है इससे कोई मतलब नहीं . भगवान् जब आपके ह्रदय में आयेगे तब उसमे पूर्णता का प्रकाश हो जाएगा.
इस संसार में हम जिन वस्तुओ को बहुत महत्वपूर्ण समझते है वे वस्तुतः महत्वपूर्ण नहीं है . महत्वपूर्ण तो केवल भगवान् ही है. आप उनके रूप का ध्यान कीजिये, आपका मन शुद्ध हो जाएगा, आप यदि चाहे की आपकी क्रममुक्ती हो, आप ब्रह्मलोक में जाए तो भी जा सकते है. यदि आपकी इच्छा यहीं भक्त होने की है तो आपको यहीं सद्योमुक्ति मिल सकती है. भागवत में क्रम मुक्ति और सद्योमुक्ति इन दोनी के मार्ग बताये गए है.
परन्तु कोई भले ही ब्रह्मलोक में चला जाए, वहा जाने पर भी उसको दुःख होता है. उसे यह दुःख होता है की वहा जाने पर यह धरती दिखाई पड़ती है, धरती के लोग दिखाई पड़ते है और यह दिखाई पड़ता है की संसारी लोग केवल धन के कारण दुखी है. जब की दुःख नाम की चीज श्रष्टि में कही नहीं है. केवल उनकी अपनी बुद्धि का यह भ्रम है की इसमें उनको दुःख मालूम पड़ता है.
संसार के लोग बारम्बार इसीलिए दुखी हो रहे है की वे सचाई को जानते नहीं, सत्य को समझते नहीं और संसार के चक्र में फसे हुए है.
शोक्स्थान सहस्राणि भय्स्थान्शतानी च
दिवसे-दिवसे मूध्माविशंती न पंडितम
दिन भर में सैकड़ो हजारो बार भय-शोक से ग्रस्त होना मनुष्य की विद्या बुद्धि की पहचान नहीं है. मूर्खता की ही पहचान है. क्योकि शोक-भय तो इस संसार में आते-जाते रहे है. इनसे अपने चित्त को दुखी नहीं करना चाहिए.
जब जीव ब्रह्मलोक में जाने पर जब धरती के लोगो को दुखी देखता है, तब उसके मन में आता है की इन सबको छोड़कर मेरा अकेला ब्रह्मलोक में आना ठीक नहीं हुआ. फिर तो वह जीव ब्रह्मलोक से कूद पड़ता है और इस धरती पर आकर उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता है. वह अनुभव करता है की सम्पूर्ण प्रथिवी का सुख-दुःख मेरा अपना सुख-दुःख है.
पहले उसका तादात्म्य जड़ से होता है फिर अग्निसे, वायु से, आकाश से, समग्र प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करने के बाद वह अपने को साक्षात् परमात्मा के रूप में अनुभव करता है.
श्रीमद्भागवत की यही प्रडाली है.
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